Thursday, 18 February 2021

 तुम्‍हारे वास्‍ते ख़ाली है घर मेरी मुहब्‍बत का 

तुम्‍हें पहलू में लाएगा असर मेरी मुहब्‍बत का 

बिला शक इसके फूलों में मेरी यादों की सुर्खी है 

सींचा है ख़ून से दिल के शजर मेरी मुहब्‍बत का 

मकाने दिल में लाखों आरज़ुओं का ज़ख़ीरा है

तुम आकर लूट लेना मालो ज़र मेरी मुहब्‍बत का 

कभी ख़ारों ने सहराओं में चूमे हैं क़दम मेरे 

नहीं आसान गुज़रा है सफ़र मेरी मुहब्‍बत का

मुहब्‍बत से खिला है 'नाज़' अपने दिल का हर ग़ुंचा

वफ़ाओं से महकता है नगर मेरी मुहब्‍बत का ।। 

मयकशी छोड़ी इन आंखों में उतर जाने के बाद

ज़िन्दगी पाई नयी हमने तुझे पाने के बाद 

मुस्तक़िल तन्‍हाइयों से हो गई है वाबस्‍तगी 

ये सिला पाया है हमने तुझपे दिल आने के बाद

अब ज़माना हो मुख़ालिफ़ इसका कोई ग़म नहीं 

हूं मैं राहे-इश्‍क़ में दुनिया को ठुकराने के बाद 

इश्‍क़ की शाख़ों पे ख़ुशियों के समर आते नहीं 

ग़म से रिश्‍ता कर लिया है तुझको अपनाने के बाद

'नाज़' दर्दे इश्‍क़ पाया है बड़े अरमान से 

ज़िन्दगी की हर ख़ुशी क़ुर्बान हो जाने के बाद 

     

Thursday, 11 February 2021

 


कहानी (जन्मदाता की सज़ा)

नाज़ ख़ान


दो अदालतें होती हैं-एक क़ानून की और एक समाज की। हाँ, एक अदालत ऊपर वाले की भी होती है, लेकिन दुनिया में इन्हीं दो अदालतों से वास्ता पड़ता है। क़ानून की अदालत गवाह, सुबूत और बहुत कुछ मांगती है जुर्म साबित करने के लिए और तब जाकर किसी मुजरिम को सज़ा सुनाती है, मगर इस समाज की अदालत में तो अक्सर मुल्ज़िम का पूरा परिवार ही मुजरिम करार दे दिया जाता है, वह भी बिना सुबूत, बिना गवाह! और सज़ा, सज़ा भी शुरू हो जाती है उस परिवार का सामाजिक बहिष्कार करके। जैसा कि पप्पू के परिवार के साथ हो रहा है।

कोई माँ के पेट से पापी बनकर पैदा नहीं होता, बल्कि समाज में आकर लुटेरा, हत्यारा, बलात्कारी बनता है। अगर यही सच है तो फिर क्यों आज और जब-तब कोई परिवार बलात्कारी का सम्बन्धी होने की सज़ा भुगतता है? एक ऐसे बेटे को पैदा करने के गुनाह की सज़ा, जिसने किसी लड़की के सम्मान को अपनी हवस के तले कुचल डाला! अगर किसी के जुर्म की सज़ा उसके परिवार को दी जा सकती है तो सज़ा इस समाज को भी मिलनी चाहिए, क्योंकि वह भी तो किसी इन्सान को इन्सान बनाने में नाकाम रहा, लेकिन अफ़सोस! सज़ा ढोता है अकेले बलात्कारी का परिवार, ख़ासकर वो परिवार जो गु़रबत की दलदल में पहले ही फंसा होता है।

बलात्कारी पप्पू को जन्म देने वाली माँ भी आज सवालों के कटघरे में खड़ी कर दी गई थी। उस पर एक के बाद एक हमलावर सवाल दागे जा रहे थे और पूरा समाज, बिरादरी, मीडिया और क़ानून के नुमाइन्दे उसे शब्द-बाण से आहत कर रहे थे।

पिछले दिनों दिल्ली में हुई बलात्कार की घटना के ज़िम्मेदार लोगों में पप्पू भी शामिल बताया जा रहा है। वही पप्पू, जिसके घर आज भारी जमावड़ा होने वाला है। पुलिस की गाड़ियाँ, मीडिया वैन और आस-पास के लोगों के अलावा दीगर गाँव के लोगों की एक लम्बी जमात पप्पू को पूछते-पूछते उसके घर की तरफ़ बढ़ रही थी। कई कच्ची-पक्की सड़कों और खेत-खलिहानों से होते हुए आखि़र पप्पू का घर आ ही गया। मिट्टी के ऊँचे चबूतरे पर बनी छोटी-सी एक झुग्गी, दरवाजे के नाम पर दो दीवारों के दरम्याँ कुछ फासले को छोड़ दिया गया था और जो दीवारें थीं वह ख़ालिस मिट्टी की बनी थीं, जिनके चन्द धक्कों में गिर जाने का इम्कान था। झुग्गी को फूस से छाया गया था और वह भी इतना पुराना हो चुका था कि इधर-उधर लटक रहा था। झुग्गी की एक दीवार से सटी इन्सानी आकृति दिखाई दी। पुलिसवाले ने डण्डा फटकार कर पूछा- ‘‘ए कौन है तू?’’

तभी धीरे से मटमैली चादर मुँह से हटी और 40-45 साल की मंजरी ने कुछ बोलना चाहा ही था कि कुटिया के अन्दर से 21 साल की एक लड़की प्रकट हुई- ‘‘ये तो हमारी अम्मा हैं।’’

पुलिसवाले ने सुमंगला की तरफ मुँह घुमा कर उसी पर सवाल दाग दिये।

‘‘यह पप्पू कहाँ है?’’

‘‘भइया नहीं है। वो तो कई सालों से हियन से चला गया।’’

‘‘कहाँ गया?’’ -पुलिसवाला डाँटने के लहजे में पूछने लगा।

‘‘जी हुजू़र, वो तो पाँच साल से र्नाईं लौटो’’, मंजरी निहायत फिक्रमन्द और लरज़ते अन्दाज़ में बोली।

‘‘पप्पू का बाप कहाँ है?’’

‘‘जी, अपाहिज हुई गए हैं। अन्दर पड़े हैं। वो तो उठऊ नाय सकत।’’

‘‘कोई पता, फोन नम्बर है तुम्हारे पास पप्पू का’’, -इंस्पेक्टर ने पूछा।

‘‘पाँच साल से जब से वा गओ है तब से उन्ने करवट ही न ली। उसका बाप लंगड़ा हुई गया, बहिन ब्याहने को पड़ी है, घर में खाने को लाले, तभऊ उन्ने कौनो खबर न ली, तो का बतायें कि वो कहाँ है।’’ एक लम्बा वाक्य बोलकर मंजरी रुंधे गले और घबराहट से बामुश्किल अपनी बात पूरी कर पायी।

इतने में एक कांस्टेबल आगे बढ़ कर झन्नाते हुए बोला, ‘‘कुछ खबर है तेरे पप्पू ने क्या किया? तेरे लड़के ने एक लड़की की इज़्ज़त ख़राब की है, उसे मार डाला। पुलिस से बचेगा नहीं पप्पू।’’

‘‘अब अगर तुझे कहीं से भी पप्पू की ख़बर लगे या उसका फोन आये या वह आ जाये तो फौरन थाने आके बता दीओ, वरना पप्पू तो अन्दर सड़ेगा ही, तुम सबको भी घसीट कर हवालात में डाल देंगे।’’ इंस्पेक्टर ने बात को रूआबदार लहजे में पूरा किया।

‘‘जी हुजूर, हम जरूर बतइवे।’’ पप्पू के बापू की अन्दर से मद्धम आवाज़ आयी तो पुलिसवाले भी रौबदार अन्दाज़ में कहते हुए चल दिये कि ‘हाँ, ख़बर कर देना। इसी में तुम्हारी ख़ैर है।’

पुलिसवाले तो चले गये, मगर अब मीडिया का जमघट पप्पू के घर को चारों ओर से घेरे खड़ा था। एक चैनलवाले ने कैमरा स्टैण्ड पर खड़ा किया और मंजरी का हाथ पकड़ कर उठा लाया। मानो पप्पू के गुनाह का कन्फेशन उसकी माँ कैमरे के सामने करेगी।

‘‘हाँ तो अब बताओ कि पप्पू क्या शुरू से ही ऐसा है?’’ -एक नामी टीवी चैनल के रिपोर्टर ने पूछा।

मंजरी पहले ही अचानक आयी इस मुसीबत से घबराई हुई थी। रो-रोकर कहने लगी, ‘‘साहिब, का पूछत हो, समझे नाहीं।’’

रिपोर्टर ने झल्लाते हुए फिर पूछा, ‘‘अरे इससे पहले भी पप्पू ने किसी और लड़की को गाँव में पकड़ा था क्या?’’

‘‘नाहीं साहिब, वो तो बहुत अच्छो थो, बहुत छोटो थो तब। तभऊ कछु न कछु मजदूरी कर-कराएके जरूर लातो थो घर में। फिर किसी के संग ट्रक चलाने में लग गओ। परदेस जातो रहो और फिर एक दिन बोलो, ‘अम्मा हम परदेस जात हैं’, कह कर ऐसो गओ कि अभी तक ना आओ। अब उसकी ख़बर ही आयी,’’ मंजरी कह रही थी कि अचानक उसकी आवाज़ भर्रायी और वह रुंधे गले से वाक्य पूरा कर पायी।

रिपोर्टर- ‘‘अच्छा पप्पू की उम्र क्या होगी?’’

‘‘पाँच साल पहिले तो 15 साल को रहो शायद या कछु महीना कम।’’

एक मीडिया कर्मी मंजरी को घेरे खड़ा सवालों पर सवाल दागे जा रहा था तो दूसरे मीडिया कर्मी ने पप्पू के पिता के मुँह पर माइक लगा दिया।

बेचारे एक तो अपाहिज, फिर बीमारी और सदमे से निढाल थे। अचानक माइक को सामने देख सकपका गये। उठने की कोशिश की तो रिपोर्टर ने ही उन्हें पकड़ कर उठा कर बिठा दिया। हाथ-पैरों से लाचार, चेहरे पर गु़रबत और ग़म की झाइयाँ, जिन्हें इस एक और सदमे ने और गहरा कर दिया था। पप्पू के पिता बोल पड़े- ‘‘साहिब, इस पप्पू को जो चाहो सजा दई दो, पर हमको बखस देओ। हमार जवान बिटिया है। उसका ब्याह न हुआ है अभी तलक। ये सब बातें गाँव म फैल गयीं तो हमारी बच्ची को कौन ब्याहेगो।’’

रिपोर्टर फिर भी अपने सवाल पर डटा रहा- ‘‘वह तो ठीक है, पर यह तो बताओ कि पप्पू लड़कियों को छेड़ने के अलावा और कौन-कौन से ग़लत काम करता है?’’

पप्पू के पिता- ‘‘अब साहिब का बतायें। बहुत छोटो थो तब, हियन से चलो गओ। न कौनो खबर, न कोई रुपया-कौड़ी घर भेजी। अब ऐसी औलाद होये तो बाको तो जेल जानो ही अच्छो। बस एक बात की फिकर है कि बाकी इस करतूत से हमारी बदनामी इस गाँव से पल्ले गाँव तलक होय गयी।’’

एक ख़बरनवीस ने पप्पू की बहिन को भी सवालों के घेरे में ले लिया। पूछा, ‘‘तुम पप्पू की बहन हो?’’

नज़रें नीची किये, घबराई-सी दुबली-पतली सुमंगला ने जवाब में सिर हिला दिया।

रिपोर्टर- ‘‘तुम्हें पता है, तुम्हारे भाई ने क्या किया?’’

‘‘कोई गलत काम करो है भइया ने’’, कंपकपाते होठों से जवाब देकर सुमंगला नज़़रें नीची किये रही और रोने लगी।

पप्पू की दो बहनें हैं-एक पप्पू से बड़ी और दूसरी छोटी। बड़ी बहन तो सब समझ और जान गयी थी और छोटी वह भी तो इस बात से अंजान नहीं थी, क्योंकि जिस उम्र में लड़के की उम्र को उसके खेलने की उम्र कहते हैं, उसी उम्र में लड़कियाँ बहुत समझदार हो जाती हैं। ग़रीब-गु़रबा की समझ तो और ज़्यादा ही होती है, फिर पप्पू की यह कमसिन बहन कैसे न समझती! तिस पर घर-आँगन में लगा मीडिया का जमावड़ा, हालात समझाने के लिए काफ़ी था। भद्दे और अटपटे सवाल हालात को और पेचीदा बना रहे थे। पप्पू के घर मीडिया और तमाशबीनों का जमावड़ा काफ़ी देर तक लगा रहा। एक के बाद एक पत्रकार पप्पू के माँ-बाप और बहन पर सवाल दागते रहे। आखि़र इन्हीं सवालों से उनको चैनल पर दिनभर बे्रकिंग न्यूज़ चलाने का मसाला जो मिलना था। पप्पू के कुकर्मों के लिए उसके पूरे परिवार को कटघरे में खड़ा करने वाले मीडिया को न तो पप्पू के घर की ख़स्ता हालत दिखी और न ही उसके अपाहिज बाप, बीमार माँ, अविवाहित बहनें! बस सवालों के घेरे में पूरा परिवार था, वह भी महज़ पैदा करने के गुनाह में, जिनको पप्पू को पैदा करने का मुजरिम मानकर मीडिया के कैमरे पप्पू के घर पर दिनभर तने रहे।

एक छोटा-सा ज़िला बदायूँ, जहाँ आज भी विकास के नाम पर बस कुछ सड़कें ही बन पायी हैं। यहाँ न कोई कल-कारखाना है और न रोज़गार के दूसरे अवसर, न ही चिकित्सा सुविधाएँ मुकम्मल हैं और न ही तालीम के ही भरपूर इंतज़ामात। इतनी समस्याओं के बावजूद जो ज़िला कभी क्षेत्रीय चैनलों, अख़बारों की सुर्खी़ नहीं बना, उस ज़िले को आज एक पप्पू के कुकर्मों की वजह से न सिर्फ़ देश-प्रदेश, बल्कि विदेश तक ख़बरों में जगह बनाने का मौका मिल गया।

जुर्म पप्पू ने किया और उसकी सज़ा भुगत रहा है उसका परिवार भी!

सुबह से शाम तक सवाल-जवाबात का दौर चलता रहा और कैमरों के सामने पप्पू का अपाहिज पिता, बीमार माँ और कमसिन बहन मुल्ज़िम बनकर खड़े रहे। पूरे घर के हालात बता रहे थे कि परिवार कितने बुरे हालात में ज़िन्दगी बसर करता रहा है और अब पप्पू के बलात्कार के आरोपी होने के बाद तो इन सबका जीना ही दूभर होने के आसार नज़र आने लगे हैं।

मंजरी ठण्डी आह लेकर कच्ची दीवार से टेक लगाते हुए बोली- ‘‘अब तो हमारो जीनो ही दूभर हो जाएगो।’’ पप्पू के पिता ने अन्दर से ही ‘‘हाँ’’ में जवाब देते हुए कहा- ‘‘इस लड़का से कौनो सहारा तो का मिलतो, उल्टे समाज में नजर उठाने के काबिल भी न रखो।’’

‘‘जरा-सी जमीन से जो थोड़ी-सी फसल उगत है, उसी से पेट भर लेत हैं। यह सोच कर कछु आस बँधी थी कि समाज में वकत पर सभी लोग थोड़ी-बहुत मदद करेंगे। नसीब से जो जुटा पाएंगे, उसी से बिटिया का ब्याह कर, इस जुम्मेवारी से फुरसत पा लेंगे। देर-सबेर पप्पू भी थक-हार कर हियन आ ही जाएगो, पर इस काण्ड से तो लागत है कि जो बाने करो, उसके लिए वा तो जेल जाएगो ही, बिरादरी-मुहल्ला में जो अपनी इज्जत गयी उसके बदले में लोगों के ताने सुनने पडे़ंगे। अपनी छोरी पर भी लोग बुरी नजर रखेंगे। इतते सबके बाद भी कोई इसे ब्याहने आएगो, ये आस भी नहीं बँधती।’’ मंजरी बोलते-बोलते रोने लगी।

पप्पू की दोनों बहनें उसके इस कुकर्म से आहत थीं, पर इससे ज़्यादा उन्हें अपने बापू-अम्मा का ग़म खाये जा रहा था। तिस पर मीडिया के सुलगा देने वाले सवाल, तमाशबीन होकर देखती समाज की व्यंग्यात्मक निगाहें! फिर भी हालात का सामना तो करना ही था। सुमंगला ने पहल की- ‘‘अरी अम्मा, अब जो कछु हुओ सो हुओ। अब भइया किए हैं तो भुगतेंगे। तुम काहे को जिया जलाती हो?’’

‘‘अरी बिटिया, औलाद कैसी ही हो, माँ का जिया उसे भुला न पावे है’’ -मंजरी ने धीमे लहजे में कहा।

‘‘पर माँ इसमें हमार का गलती है? और अब हम करई का सकत हैं?’’ बोलते-बोलते सुमंगला का गला रुंध आया। मंजरी ने बड़े लाड़ से बेटी को गले लगा लिया और दोनों माँ-बेटी गले लगकर रोने लगीं। मानो दिलों के गु़बार को आँसुओं से हल्का कर रही हों। छोटी बेटी कमला भी जिसे प्यार से कम्मो कहते थे, माँ के गले लग गयी। दूर बैठे बाप भी यह सब देख-सुन कर आँसू रोक नहीं पाये। 

रात जैसे-तैसे गुज़री। सुबह पास के एक आदमी ने आके ख़बर दी- ‘‘अरे पप्पू की माँ, तोहरा पप्पू पुलिस ने जेल में धर दिया है।’’ इतना सुनते ही माँ-बेटी कुटिया से बाहर आकर पूछने लगीं- ‘‘अरे, का हुओ?’’

पड़ोसी- ‘‘अरे टीवी पे तेरे पप्पू की खबर चल रही है। बाको पुलिस ने जेल में डाल दओ है। और भी पाँच लोग इस काण्ड में पप्पू के साथ रहे।’’ थोड़ा रुक कर, ‘‘बताओ तो इस लड़का ने का कर डालो। नाम खराब कर दओ गाँव को। शुरू से ही कुकर्मी थो। पप्पू की माँ, अगर तुम लड़का को किसी काम पर बिठा देतीं और सादी कर दिये होतीं तो आज ये नौबत न आती। अब देखो, तुम्हारे पप्पू खातिर कितनी बदनामी होय गयी। पल्ले गाँव में निकलना दुश्वार है।’’

मंजरी- ‘‘भइया, पप्पू के भाग्य में तो कालकोठरी लिखी है, पर मुआ अपनी अम्मा के माथे कलंक भी लगा गयो। उसे का रोकती। वो रुकन वालो कब थो? अब जो कियो है, सो भुगतेगो। हमारे लयै तो वो उसी दिन न रहो जिस दिन बाने घर की चैखट लाँघी।’’

पड़ोसी की बातों से तंज़ की कड़वाहट ज़ाहिर हो रही थी और पूरा परिवार इस कड़वे घूँट को पीने को मजबूर था।

उस एक दिन से जबसे पुलिस और मीडिया के लोग पप्पू के घर आ धमके थे, तब से हर दिन जैसे एक संघर्ष की राह बन गया था और गाँव का हर आदमी पप्पू के घरवालों को किसी न किसी तरह यही अहसास करा रहा था कि उसके पप्पू के कुकर्मों का भोगी उसका परिवार भी है। उसकी माँ भी जिसने पप्पू जैसे बलात्कारी को जन्म दिया, उसका पिता भी जो पप्पू को एक वहशी से इन्सान बनाने में नाकाम रहा और उसकी दोनों बहनें भी जिनका गुनाह एक बलात्कारी की बहन होना है।

जब से पप्पू के पिता अपाहिज हुए थे तब से घर-गृहस्थी चला पाना मुश्किल हो गया था, बल्कि यूँ कहें कि गृहस्थी की गाड़ी जैसे-तैसे खींची जा रही थी। रोज़ी-रोज़गार के नाम पर महज़ खेत ही चार लोगों के इस परिवार का सहारा थे और सारी ज़िम्मेदारी पप्पू की माँ और बहनों पर आ पड़ी थी। माँ बाज़ार से बीज, कीटनाशक और घरेलू सामान लाने का काम करती तो बेटियाँ खेतों में बुआई, जुताई को अंजाम देती थीं। इससे कम से कम इतना सहारा था कि यह परिवार भूख से महफू़ज़ था, लेकिन इधर आकर खेत भी बँटाई पर देने पड़े थे, क्योंकि एक तो पप्पू के पिता के इलाज-दवाओं का ख़र्च, तिस पर उसकी माँ की बीमारी। हालात ऐसे बदतर हो गये थे कि उनकी एकमात्र गाय जो दूध का सहारा थी और अक्सर खेत में जुताई के काम भी आ जाती थी, उसके भी भूखों मरने के दिन आ गये थे। खेत में फसल के ही लिए जगह कम थी, तिस पर गाय का चारा कहाँ बोया जाता। इतने रुपये भी नहीं थे कि बाज़ार से चारा ख़रीद कर गाय को दिया जा सके। ऐसे में जब पेट पर रोज़ की मार पड़ी तो गाय भी निढाल हो गयी और सारा दिन बैठ कर ऊँघती रहती, बीमार भी हो गयी थी और एक दिन वह भी मरी पड़ी मिली।

मुफ़लिसी-तंगहाली में ज़िन्दगी गुज़ार रहे पप्पू के परिवार पर एक और आफ़त टूट पड़ी थी, जब से पप्पू को खोजने पुलिस उसके घर आयी थी। दूरदराज़ के गाँवों में जो बदनामी हुई सो अलग, लेकिन अपने ही गाँव के लोगों ने भी अब इस परिवार को अपने निशाने पर ले लिया था।

पप्पू की बहन की शादी जिस घर में तय हुई थी, वहाँ से रिश्ता तोड़ दिया गया। पूछने पर लड़के की माँ ने साफ़-साफ़ कह दिया, ‘‘अब तुम्हारे घर रिश्तेदारी जोड़ने से हमारे घर की भी आफत हुय जाएगी। पप्पू के कारन पुलिस, अखबारवाले अभी तक तो तुम्हें ही घेरत हैं, रिश्तेदारी हुय जाने पर हियनौ आ फटकेंगे और बिरादरी में बदनामी होयगी सो अलग। हमै भी तो अपनी बिटियन को ब्याहने है, बहू लाने है।’’

पप्पू की माँ- ‘‘पर इसमें हमार बिटिया को का कसूर?’’

‘‘वो हम न जानत, पर इततो समझ लियो कि गेहूँ के साथ घुन तो पिसतो ही है।’’

पप्पू की बहन का रिश्ता टूटने के बाद घर की बदहाली की वजह से खेत भी बँटाई पर देने पड़े।

पास के सरकारी हैण्डपम्प से पप्पू की बहनें रोज़ पानी लेने जाती थीं। आज जब तड़के दोनों नल के पास पहुँचीं तो गाँव का ही एक लड़का पप्पू की बहन के पास आकर उसे घूरने लगा।

पप्पू की बहन- ‘‘एई का घूरत हो?’’

‘‘अरी तुझे और क्या! सुना तेरा रिश्ता टूट गवा।’’ -लड़के ने मुँह में रस लेते हुए तंज़िया लहजे में कहा।

‘‘तुझे क्या?’’ -पप्पू की बहन इतना कहकर पानी की बाल्टी उठा चलने लगी तो उस लड़के ने उसकी पानी की बाल्टी फेंक दी और कहने लगा- ‘‘अरे मुझे ही तो सबै कुछ है। मुझसे रिश्ता जोड़ ले।’’

‘‘कुत्ता कहीं को, शरम तो कछु कर लेओ।’’ -पप्पू की बहन ने उस लड़के को झिड़कते हुए कहा।

‘‘शरम तो तू कर, तेरो भाई लड़कियन संग गन्दो काम करके उन्हें मार देतो है। जेल की रोटियाँ तोड़ रओ है और तू बेशरमो की तराँ खूब खा-खाकर, पानी भर कर हलक़ में उतार कर मस्ती से गाँव में डोलती फिरती है। अरी तुम जैसन को तो अपने भाई की इस करतूत पर मर जानो चाहिए थो, इसी चुल्लू भर पानी में।’’

पप्पू की बहन इतना सुनकर रोती हुई अपने घर आ गयी। माँ ने उसे रोते देखा तो पूछा- ‘‘अरी का हुआ?’’

‘‘वो जो लच्छू को छोरा है न, वो अपने दोस्तों के संग मिलकर हमको छेड़ रओ थो। उसे डांटो तो हमी को कहने लगो कि तुझे अपने भाई की करतूत पे मर जानो चाहिए। हमार रिश्ता टूट गयो तो इस पर भी हमें ही ताना मार रओ थो। अब ई मा हमारी का गलती है अम्मा?’’ सुमंगला ने रुआँसा होकर पूरी दास्ताँ बयाँ की।

‘‘अरी गलती तो हमने की है लाडो, पप्पू जैसे पापी को जनम देकर।’’ पप्पू की माँ ने यह कहा ही था कि अन्दर से पप्पू के बापू बोल पड़े- ‘‘अरी मंजरी (पप्पू की माँ), अब हर माँ-बाप अपने बच्चन को अच्छो ही बनानो चाहत है, पर पूत-कपूत हुय जाये तो का करै। ये सब तो भाग्य को कियो-धरो है।’’

‘‘ना जी, ये भाग्य को ना हीं, पप्पू के कुकर्मों का फल है, जो हम सब भुगत रहे हैं।’’ पप्पू की माँ ने ठण्डी आह भरते हुए कहा।

बेटी की बात सुनकर पप्पू की माँ फौरन अपने पड़ोसी लच्छू के दरवाजे़ पर गयी और उसकी औरत को बुलाकर जब उसके लड़के की शिकायत की तो उल्टा वह ही पप्पू की माँ पर गरम हो गयी- ‘‘शरम ना हीं आत है, शिकायत करने चली आयीं हमार लड़का की। अरे पहले अपने लड़का का हाल तो देख लेओ, टीवी पर सारा दिन उसी की करतूत को बखान हुय रओ है और वह जो गाँव में पुलिस आयी, पूरे गाँव की नाक कटवाय दई तुमारे लड़का ने। चली आयी शिकायत लेकर, अपने गिरेबान में झाँकनो चाहिए पहले। लड़का तो लड़का, अब लड़कियो दूसरों के छोरन पर निगाह रखने लगी। अरी तुमारा लड़का इज्जत लूटन वालो है तो का सबके लड़का पर ये इल्जाम लगा कर बदनामी करोगी।’’ बुरा-सा मुँह बना कर पप्पू की माँ को खू़ब जतन से ताने दिए लच्छू की बीवी ने। ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वह पप्पू के कर्मों की भड़ास उसकी माँ पर निकालने को ही बैठी थी।

कुछ कह पाती, उससे पहले ही पप्पू की माँ को इतना कुछ सुनना पड़ा कि उसकी जु़बान पर तो शब्द ही जम कर रह गये और एक बात भी मुँह से न निकल पायी। उधर लच्छू की औरत उसे उसके बेटे की करतूत चीख-चीख कर सुना रही थी तो इधर पत्थर हो खड़ी पप्पू की माँ यह अन्दाज़ लगाने में लगी थी कि पप्पू के गुनाह का उसकी बेटी से क्या ताल्लुक़! यही सोचते-सोचते वह लच्छू की ड्योढ़ी से अपनी झुग्गी तक आ गयी, पर उसके दिमाग़ में यही कशमकश चल रही थी कि उसके बेटे के गुनाह को क्या सारा परिवार भोगेगा और भोगेगा भी तो कब तक और क्यों?

वह सारी रात जागती रही और रोती रही। फिर पता नहीं कब आँख लग गई और अचानक ‘‘अम्मा चाय पी लेओ, उठ जाओ’’ की आवाज़ उसके कानों में गूंजी तो सामने सुमंगला चाय का प्याला हाथ में लिये खड़ी थी और अपनी अम्मा की तरफ उसे बढ़ा रही थी। ‘‘तनिक रुक जाओ बिटिया, हम मुँह तो धोय लें’’, -कहते हुए पप्पू की माँ उठी ही थी कि पड़ोस का नजीब उसके आँगन में आ गया और आवाज़ लगायी- ‘‘अरे पप्पू के बापू, तुमारे लड़का को फाँसी की सजा होय गयी है।’’

दौड़ती हुई पप्पू की माँ झुग्गी से बाहर निकली और पूछने लगी- ‘‘अरे नजीब का खबर है, कैसे पता लगो?’’

‘‘अरे खबर तो आजकल हर अखबार और टीवी पर चल रही है तुम्हारे पप्पू की’’, नजीब ने तंज़पूर्ण लहजे में कहा। ‘‘यह गाँव को पहलो लौंडा है, जिसके कारन पूरो गाँव बदनामी झेल रओ है। इतनी छूट न दी होती तो आज ये दिन न देखने पड़तो। देखो बुरा न मनियो पप्पू के बापू।’’ दरवाज़े तक पहुँच कर पप्पू के बापू से रूबरू होते हुए नजीब ने कहा- ‘‘बच्चन को तहजीब तो माँ-बाप से ही मिलत है। तुम इसमें चूक गये, थोड़ो ध्यान दिए होते तो...’’

अभी नजीब अपनी बात कह ही रहा था कि पप्पू के बापू भड़क गये- ‘‘का तहजीब दिये होते? आज हमार पप्पू ने कोई गलत काम कर दियो तो सब सरीफ बन गये। भूल गये तुमारे लौंडे ने का न कियो। सराब, जुआ तो अलग, अपनी माँ पर भी हाथ उठा दओ। तब तुमने का तहजीब सिखाई लौंडे को?’’

यह सुनते ही नजीब भड़क गया- ‘‘अपनी हद में रहो पप्पू के बापू। लिहाज कर रहे हैं, वरना हमारी भी जुबान है।’’

कहा-सुनी बढ़ गयी तो पप्पू की माँ और बहनें बीच में सुलह-सफ़ाई करने लगीं।

‘‘अरे नजीब मामू, अब आप तो जानत ही हो कि बापू और हम सब कितते परेसान हैं। भइया ने जो कियो सो कियो, उने सजा मिल रई है न’’, -सुमंगला ने कहा।

नजीब- ‘‘पर अपने बापू को समझा लियो। ज्यादा बदजुबानी न करें। खुद की बेटी का रिश्ता तलक टूट गया। बदनामी पे बदनामी और इतते पर भी घमण्ड, ये सब अच्छो नाय है’’, -कहते हुए नजीब चला गया।

पर पप्पू के बापू अन्य गाँववालों के सामने फफक कर रो पड़े। कहने लगे- ‘‘अब संस्कार तो भइया अपनी सभी औलादों को दिए, पर उसको बाहरी लोगन की सोबत ने बिगाड़ दओ। अपने गाँव में ही रैकर कोई छोटो-मोटो काम-धन्धा कर लेतो तो ये नौबत न आती।’’

बहुत देर तक यह सब चलता रहा। ‘‘पप्पू ये सब करतो ही न तो इतता काहे को सुनने पड़तो’’, -कहते हुए सिर पर हाथ रखकर पप्पू की माँ दीवार से लग कर बैठ गई।

सुबह क्या और सुबह की चाय-नाश्ता क्या!

रात भी रोते-रोते ही गुज़री और सुबह होते ही एक मनहूस खबर ने उसके दिल को छलनी कर दिया था। तिस पर गाँव के लोगों का हमलावर व्यवहार, ये सब पप्पू के परिवार को दिली तौर पर तोड़ने का काम कर रहे थे। एक माँ अपने उस दर्द को दबाये थी जो पप्पू की जुदाई से उभर आया था। ज़ाहिर भी करती तो क्या? आखि़र पप्पू के अपराध ने उसकी ममता को किसी पत्थर की तरह दबा जो दिया था। मगर एक माँ के लिए तो बेटे के प्रति प्यार ही होता है। वह लाख गुनाहगार सही, पर औलाद तो औलाद ही होती है और उसी औलाद को खोने का ग़म अब उसे अन्दर ही अन्दर खाये जा रहा था।

काफ़ी दिनों तक यही हालात रहेे। एक तो मुफ़लिसी-बदहाली, तिस पर पप्पू का ग़म, हफ़्ते, महीने गुज़रे और वह दिन भी आ गया जब पप्पू को फाँसी की सज़ा का फ़ैसला सुनाया गया।

पड़ोस के बलवीर ने पप्पू के बापू को आकर बताया कि पप्पू को फांसी की सज़ा हो गयी है।

इतना सुनना था कि पप्पू की माँ और बापू गुमसुम-से हो गये। मानो कुछ देर के लिए वक़्त ठहर गया हो, ज़िन्दगी का कारोबार रुक-सा गया हो।

यह ख़बर जब पप्पू के बापू के कानों में पड़ी तो उन्होने ख़ामोशी इख़्तयार कर ली। उधर पप्पू की बहनेें भी ख़ामोशी में डूब गयीं। बहुत देर तक सब लोग चुपचाप बैठे रहे। सबके चेहरों पर मायूसी और मातमी सन्नाटा छाया रहा।

फिर अचानक पप्पू की माँ इतनी ज़ोर से रोयी कि आस-पड़ोस के सारे लोग इकट्ठा हो गये। पप्पू के अपाहिज बाप लाचार होकर आँसू बहाये जा रहे थे। उनके दर्द में कोई आवाज़ नहीं थी, लेकिन ग़म का एक गहरा सागर पिघल रहा था धीरे-धीरे उनकी आँखों से। पप्पू की दोनों बहनें भी माँ के गले लग कर रोये जा रही थीं।

Wednesday, 12 August 2020

एक चराग़े-तन्‍हा हैं, वीराने में जलते हैं

 बरसों से हम अपने ही काशाने में जलते हैं                 

एक चराग़े-तन्‍हा हैं, वीराने में जलते हैं.

किस मस्‍ती से महफ़िल में जामो-मीना चलते हैं

हम ख़ामोश तने-तन्‍हा मयख़ाने में जलते हैं.

दिल की लगी कुछ ऐसी है बुझती नहीं बुझाने से

कितने शोले सीने के, तहख़ाने में जलते हैं.

सदियां गुज़रीं हम ऐ 'नाज़' इतिहासों में रौशन हैं

यानी नामे-औरत से हर ख़ाने में जलते हैं.

Wednesday, 30 October 2019

दम मस्त कलंदर

दम मस्त कलंदर

‘लाल मेरी पत रखियो बला झूले लालण...दमादम मस्त कलंदर’ रगों में जोश भर देने वाली इस धुन पर हर जिस्म थिरकता है, हर दिल मस्ती में डूब जाता है। कभी सूफी की कलम से निकला और खानकाहों में गूंजने वाला यह सूफियाना कलाम गायिकी का एक शाहकार कहा जा सकता है। ‘दमादम मस्त कलंदर’ का मतलब है, हर सांस, दम में मस्ती रखने वाला फकीर यानी कलंदर। सिंध प्रांत के सेहवन के मशहूर संत सखी शाहबाज कलंदर ही इस सूफियाना कलाम के महानायक हैं। लाल शाहबाज कलंदर ही झूलेलाल कलंदर हैं। कहा जाता है कि हिंदवी के पहले कवि अमीर खुसरो ने सबसे पहले लाल शाहबाज कलंदर के संबोधन में इसकी रचना की थी। बाद में इसमें कुछ पंक्तियां बाबा बुल्लेशाह ने भी जोड़ीं।
सूफियों की खासियत उनका संगीत और कलाम है। इसमें मदमस्त होकर ही उनकी रूह अपने रब को करीब महसूस करती है। सूफियों को मदमस्त करते आ रहे इस कलाम की ही यह खासियत ही कही जा सकती है कि उनका सूफियाना कलाम हर धर्म-मजहब और संप्रदाय की हदों को तोड़ता हुआ सुनने वालों को प्रेम के बहाव में बहाता लिए चला जाता है। यही वजह है कि कभी मजारों पर ‘दम मस्त कलंदर’ की गूंज इंसान को किसी रूहानी डोर से बांधती हुई सी लगती है तो कभी प्रभु की महिमा का बखान करने वाले संतों के प्रवचनों में इसका असर घुला नजर आता है। ऐसे में धर्म-मजहब के दायरों को दरकिनार करते हुए मोरारी बापू जैसे संतों के प्रवचन का हिस्सा भी बनता रहा है। यही वजह है कि अपने प्रवचनों के दौरान बीच-बीच में फिल्मी गीतों के गहरे अर्थ और उनका ईश्वर से संबंध स्पष्ट करते बापू भी ‘लाल मेरी पत रखियो बला झूले लालण...दमादम मस्त कलंदर अली दमदम दे अंदर’, की मोहिनी धुन को गाते नजर आते हैं, तो उनके सुनने वाले उनका साथ देते, उस पर झूमते नजर आते हैं।
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डॉ. चंद्र त्रिखा जिन्होंने ‘सूफी लौट आए हैं’ किताब में सूफियों के जीवन और नृत्य-संगीत को बड़े ही रोचक अंदाज में लिखा है। वह बताते हैं कि हजरत शाहबाज कलंदर के बारे में दो गीत बेहद प्रचलित रहे हैं, ‘लाल मेरी पत रखियो बला झूले लालण’ और ‘झूले लाल शाहबाज कलंदर।’ इन दोनों गीतों के बीच ‘झूलेलाल’ साझी कड़ी हैं। शाहबाज कलंदर कब और कहां पैदा हुए इसका कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिलता। मगर उनकी जीवनयात्रा 1324 में पूरी हुई थी। उनकी दरगाह पर हर मजहब के मानने वालों की भारी भीड़ की एक वजह यह भी है कि शाहबाज कलंदर कर्मकांड के बजाय दिल के हाल पर ज्यादा जोर देते थे और कहते थे कि ‘जो भी करना है दिल से करो।’ इस महान सूफी का असल नाम हजरत सैयद उस्मान था, मगर उनके सुर्ख रंग का लिबास पहनने की वजह से वह ‘लाल कलंदर’ कहलाने लगे।
कहा जाता है कि सूफी दार्शनिक और संत लाल शाहबाज कलंदर गजनवी और गौरी वंशों के अलावा फारस के महान कवि रूमी के भी समकालीन थे। उनके पूर्वज बगदाद से ताल्लुक रखते थे। उन्होंने कई देशों की यात्राएं की थीं, लेकिन अंत में पाकिस्तान के सिंध प्रांत में आकर बस गए थे। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि वह भारत भी आए थे, इसकी एक वजह यह भी है कि वह संस्कृत के भी अच्छे जानकार थे। उन्होंने मदरसों में तालीम दी और कई किताबें भी लिखीं थीं। 
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साज-आवाज की महफिलों से फिल्मों तक
आवाज की दुनिया के चमकते सितारों नूरजहां, नुसरत फतेह अली खां, आबिदा परवीन, अमजद साबरी, रेशमा और नाहिद अख्तर ने भी इस सूफियाना कलाम को आवाज दी। वहीं रूना लैला, जगजीत सिंह, मीका सिंह आदि कितने ही गायकों ने इसे अपनी आवाज से सजाया है और यह इसकी खासियत ही है कि गायिकी और आवाज के हर अंदाज में इसने दिलों में अपनी जगह बनाने में कामयाबी पाई है।
यह इसका आकर्षण ही है कि सुरों की मलिका आशा भोसले ने भी इसे अपनी मधुर आवाज दी है। इसके अलावा कर्रतुल ऐन बलोच, गुरदास मान, दलेर मेहदी, नूरन सिस्टर्स, जसपिंदर नरूला, सनम मरवी जैसे गायकों के भी यह कलाम सिर चढ़ कर बोला है यह इसका आकर्षण ही है कि सुरों की मलिका आशा भोसले ने भी इसे अपनी मधुर आवाज दी है। इसके अलावा कर्रतुल ऐन बलोच, गुरदास मान, दलेर मेहदी, नूरन सिस्टर्स, जसपिंदर नरूला जैसे गायकों के भी यह कलाम सिर चढ़ कर बोला है।
रैप गायक हनी सिंह, रॉक बैंड जुनून के अलावा सूफी स्ट्रिंग्स-दी आर्ट ऑफ लिविंग अलबम में सिद्धार्थ मोहन भी मस्त कलंदर करते नजर आते हैं।
वहीं शंकर महादेवन जैसे आवाज के जादूगर भी दममस्त कलंदर’ के असर से बच नहीं सके हैं।  
1955 में आई फिल्म ‘मस्त कलंदर’ में ‘दम मस्त कलंदर’ के टाइटल से एक गीत बना था। इसे आवाज दी थी मुहम्मद रफी और शमशाद बेगम ने।
1974 में फिल्म ‘एक से बढ़कर एक’ में रूना लैला ने ‘दमादम मस्त कलंदर को अपनी आवाज दी और तब से आज तक यह कितने ही गायकों के जरिए गाया जा चुका है। इसके बावजूद इसकी मिठास कम नहीं होती।
2013 में आई फिल्म ‘डेविड’ में रेखा भारद्वाज की आवाज में एक बार फिर यही सूफियाना कलाम दिलों को लुभाने आया।
फिल्म ‘धनक’ में एक बार फिर इसी कलाम को नए अंदाज में और अंग्रेजी शब्दों की जुगलबंदी के साथ पेश किया गया।
वहीं फिल्म ‘दी डे’ में मीका सिंह ने इसे आवाज देकर अपने मस्त अंदाज में गाया है।
पिछले साल प्रदर्शित हुई फिल्म ‘पार्टीशन 1947’ में सूफियाना कलाम गाने के लिए मशहूर गायक हंसराज हंस ने भी ‘दमादम मस्त कलंदर’ को अपनी आवाज में पेश किया।
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पाकिस्तानी फिल्मों में छाया रहा ‘मस्त कलंदर’  
सबसे पहले गायिका और अभिनेत्री नूरजहां ने इसे अपनी आवाज दी थी। ब्लैक एंड व्हाइट स्क्रीन पर अभिनेत्री इसको मस्ती में डूब कर गाती नजर आती है। इसके बाद सूफी शैली के मशहूर कव्वाल नुसरत फतेह अली खान इसे पेश करते नजर आए। देश-विदेश के कितने ही मंचों पर उनकी आवाज में लोग ‘दम मस्त’ होते नजर आए।
1966 में पाकिस्तानी फिल्म ‘जलवा’ में इसे अहमद रुश्दी और मुनीर हुसैन की गाई कव्वाली ‘दम मस्त कलंदर अली अली’, के तौर पर सुना जा सकता है। वहीं अंग्रेजी शब्दों के घालमेल के साथ अहमद रुश्दी की आवाज में इसे ‘दमादम मस्त कलंदर, सखी शाहबाद कलंदर, दिस इज दी सॉंग द वंडर’ शब्दों के साथ रुपहले पर्दे पर देखा गया।
दमादम को तर्ज में ढालने वाले को भुला दिया गया
लाहौर के मशहूर फिल्म संगीतकार मास्टर आशिक हुसैन की 2017 में मृत्यु हो गई। वह लम्बे समय से बदहाली में जीवन गुजार रहे थे। पाकिस्तान के एक मशहूर अखबार ने उन पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी। आज भले ही ‘दमादम मस्त कलंदर’ को नामी फनकार अपनी आवाज, तर्ज देकर सजाते हों, मगर इसको यादगार धुन से सबसे पहले मास्टर आशिक हुसैन ने ही सजाया था। उन्होंने पाकिस्तान की कई फिल्मों में संगीत भी दिया था। मगर बाद में उनके हालात बद से बदतर होते चले गए और किसी ने उनकी सुध नहीं ली। अपनी इस टीस को वह कई जगह बयां करते भी नजर आते हैं। उन्होंने कहा था कि ‘सबसे पहले ‘दमादम मस्त कलंदर’, की धुन मैंने ही बनाई थी, जिसे लिखकर दिया था शायर ‘सागर’ सिद्दीकी ने।’ ‘सागर’ को ‘दर्द का शायर’ के नाम से भी जाना जाता है। उनका जीवन बदहाली में और फुटपाथ पर गुजरा। बाद में गायिका नूरजहां ने इसे अपनी आवाज से सजाया। आगे चलकर यही धुन पूरी दुनिया में मशहूर हो गई। मगर इसको इस तर्ज में ढालने वाले को भुला दिया गया।
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मशहूर बांग्लादेशी पॉप गायिका रूना लैला भारत और पाकिस्तान के अलावा विश्व के अन्य देशों में भी जाना-पहचाना नाम हैं। करीब 80 के दशक में ‘मेरा बाबू छैल छबीला मैं तो नाचूंगी’ और ‘दमादम मस्त कलंदर’ को अपनी जादुई आवाज में स्वरबद्ध कर उन्होंने श्रोताओं को झूमने पर मजबूर कर दिया था। बाद में वह कई टीवी चैनलों के संगीत कार्यक्रमों में भी विशेष भूमिका निभाती नजर आईं। मगर उनको जो प्रसिद्धि ‘दमादम मस्त कलंदर’ से मिली उसकी बात ही अलग है। भारत में वह खासकर अपने गाए इसी गीत की वजह से जानी जाती हैं। इसके बारे में उनका यही कहना है, ‘सगीत की अपनी कोई सीमा नहीं होती, संगीत का अपना कोई धर्म नहीं होता। हम जहां भी गाते हैं प्यार और अमन का पैगाम ही फैलाते हैं। जहां तक भारत का सवाल है, मैं इसे अपना दूसरा मुल्क मानती हूं।’
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आवाज के जादूगरों की नजर में...
मौसिकी अहसासात की, जज्बात की बारीक जबान है। ‘दम मस्त कलंदर’ मस्तों की, रिंदों की धमाल है। वह अल्लाह की तौहीद के रंग में जब मस्त हो जाते हैं तो उस घड़ी को फकीरों ने ट्रिब्यूट दिया है हजरत लाल शाहबाज कलंदर को। 
दमादम मस्त कलंदर हर धार्मिक मंच पर, हर जगह और हर मौके पर गाया जाता रहा है। किसी भी दूसरे के कलाम को हर मजहब, हर धर्म कुबूल नहीं करता मगर इसे हर किसी ने दिल से अपनाया। वहीं अमेरिकन ने फिल्म बनाई है उसमें ए.आर.रहमान का संगीत है, उसमें मैंने भी इसी को गाया है और यह बहुत बड़ी बात है। सबसे पहले मैडम नूरजहां ने इसे गाया था। बाद में दूसरे गायकों ने गाया। जैसे किसी के अंदर होती है न इंटरनल फीलिंग, जिसमें भाव वही रहते हैं, लेकिन गाने वाला रूह अपनी डालता है। मैं तो इसे बचपन से गा रहा हूं और हर जगह गाता हूं। होश संभालते ही यह कलाम गाया। यह इसलिए खास है, क्योंकि हर धर्म का आदमी इसे सुनता है। किसी भी जगह गाओ, कभी किसी तरह की किंतु-परंतु इसे लेकर नहीं हुई।
हंसराज हंस, गायक

लोगों ने जब बहुत जिद की कि ‘दमादम मस्त कलंदर’ को सुनाइए, तो मैंने एक कार्यक्रम में रेखा भारद्वाज के साथ इसे मंच पर गाया था। फिर लोगों ने कहा कि इसे रिकॉर्ड भी करा लें, मगर मैंने कहा नहीं, जो सब करते हैं वह मैं नहीं कर सकता। जब कभी करूंगा भी तो इसे अपने अंदाज में। दरअसल, होता यह है कि जितने इस तरह के गाने होते हैं उनके कंपोजर का कोई नाम नहीं लेता है। जब लोग उसे गाते भी हैं तो उसे ट्रेडिशनल धुन कहकर गाते हैं, जबकि धुन कभी ट्रेडिशनल नहीं होती। शब्द ट्रेडिशनल होते हैं। धुन किसी न किसी ने रची होती है। सब लोग जब हमको सूफी गायक बोलते हैं तो मैं हंसता हूं। कोई सूफी गायक नहीं होता। कोई भी दुनिया में सूफी गायक पैदा नहीं हुआ। अमीर खुसरो भी सूफी संगीतज्ञ थे। उनके बाद कोई पैदा नहीं हुआ। जब भी आप किसी स्प्रीचुअल सोल के लिए गाते हो तो वह किसी इंसान के लिए नहीं होता। सूफियाना कलाम एक तरह से आपका रिश्ता आपके रब से जोड़ता है।
कैलाश खेर, गायक
अपने लगभग सभी कार्यक्रमों में पूरनचंद वडाली, प्यारे लाल वडाली बंधु दमादम मस्त कलंदर को जरूर पेश करते हैं और उनकी इस प्रस्तुति की खासियत यह होती है कि वह बीच-बीच में सूफी लाल शाहबाज कलंदर के जीवन के अहम वाकियों को भी सुनाते हैं और गाते जाते हैं। वह बताते हैं, ‘अक्सर लोगो को यह नहीं पता कि दमादम मस्त कलंदर कौन हुए हैं। वह सिंध के सेवहन के सखी शाहबाज कलंदर थे। सखी यानी देने वाले। जैसे बाबा जी, गुरुजी दे रहे हैं, इसलिए वह लोगो के लिए सखी शाहबाज कलंदर हो गए। 

50 साल पहले गिरा था झुमका


50 साल पहले गिरा था झुमका

झुमका बरेली में ही बार-बार क्यों गिरता है? इसी सवाल को जहन में रखकर दूर-दूर से सैलानी बरेली की सरजमीं पर कदम रखते ही पूछते हैं कि आखिर झुमका गिरा कहां था। पूछने की वजह यही है कि चाहें अपने समय की मशहूर अदाकारा साधना हों या माधुरी दीक्षित इनके झुमके बरेली में आकर ही गुम हुए। 1966 में फिल्म ‘मेरा साया’ में, ‘झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में’ गीत हो या कुछ वर्ष पहले माधुरी दीक्षित की कमबैक फिल्म ‘आजा नच ले’ का ‘मेरा झुमका उठा के लाया यार वे, जो गिरा था बरेली के बाजार में’, के अंतर्गत झुमका बरेली में ही गिरने की शिकायत नायिका ने की है। सवाल उठता है आखिर यह झुमका गिरा कब? क्योंकि इन नायिकाओं का न तो बरेली से कोई नाता है और न ही इनकी किसी फिल्म में ही बरेली का जिक्र। मगर इनका भी क्या कुसूर, गीत लिखने वालों ने झुमका गिराने की मुफीद जगह बरेली को ही पाया। मशहूर गीतकार राजा मेहदी अली खान जिन्होंने ‘मेरा साया’ के इस गीत को लिखकर रातों-रात बरेली को सुर्खियों में ला दिया था, उनका बरेली से कोई ताल्लुक नहीं था। इसके बावजूद उन्होंने अपने गीत में बरेली का जिक्र किया। दरअसल, झुमका इलाहाबाद के एक कवि की प्रेयसी का था जो बरेली के बाजार में गिरा था, क्योंकि बात कवियों की थी तो माहौल में फैल गयी और गीत की रचना का रूप ले लिया। फिलहाल, मामला अब झुमके को लेकर नहीं बल्कि इसके गिरने की जगह को लेकर सुर्खियों में है। बरेली विकास प्राधिकरण शहर के डेलापीर चौराहा पर झुमके की प्रतिकृति लगवाने की कवायद कर रहा है जिससे शहर और झुमके की पहचान को सिंबल के तौर पर खड़ा किया जाए और लोगों को जवाब मिल सके कि झुमका बरेली के इस बाजार में गिरा था। हालांकि कुछ लोगों का कहना है कि चूंकि झुमका कुतुबखाना बाजार में गिरा था और गीत भी इसी तंग बाजार को लेकर लिखा गया इसलिए यह पहचान इस बाजार से जुड़नी चाहिए।
बात कुछ पुरानी तो है मगर कई लोग इसकी तस्दीक करते हैं कि असल में यह झुमका तेजी बच्चन का था। तेजी बच्चन अभिनेता अमिताभ बच्चन की मां हैं। हरिवंश राय बच्चन से उनके विवाह से पहले दोनों का बरेली आना हुआ था। बरेली के प्रसिद्ध बाल साहित्यकार निरंकार सेवक से हरिवंश राय बच्चन की गहरी दोस्ती थी। उनसे मिलने के लिए अक्सर हरिवंश राय बरेली आया करते थे। दरअसल, तेजी बच्चन से उनके विवाह कराने में निरंकार सेवक का बड़ा हाथ था। निरंकार सेवक की पुत्रवधु पूनम सेवक कहती हैं, ‘यह विवाह हुआ ही निरंकार जी की कोशिशों से था।’ एक बार उनके कहने पर ही हरिवंश राय और तेजी बच्चन बरेली आये थे। इसी दौरान दोनों में नजदीकियां हुईं और बात विवाह तक पहुंच गयी। इस बीच प्रेम का जो अंकुर फूटा उसी से प्रेरित होकर एक दिन तेजी के मुंह से निकल गया कि, ‘मेरा झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में।’ उनके यह कहने का आशय शायद यह रहा हो कि वह प्रेम में अपनी सुध-बुध खो बैठी हैं और ऐसे में उनको अपने झुमका गिरने का भी पता नहीं चला। हालांकि यह भी हो सकता है कि बरेली के बाजार की तंग गलियों से होकर गुजरने की वजह से उनका झुमका गिरा हो, जैसा कि कुछ लोगों का कहना है। खैर, साहित्य के गलियारों से कोई बात निकलती है तो फसाना बनती ही है। झुमका गिरने की इस घटना का जिक्र गीतकार राजा मेहदी अली खान तक पहुंचा और ‘मेरा साया’ के गीत लिखने के वक्त उन्होंने इसी वाकिये को गीत की शक्ल दे दी। इत्तेफाक से यह गीत मशहूर भी बहुत हुआ। हालांकि झुमका किसका गिरा यह बात पर्दे में रही लेकिन इस गीत के बहाने बरेली का बाजार जरूर मशहूर हो गया।
फिलहाल, वह झुमका कब का गिर चुका, मिला या नहीं इसकी तस्दीक आज तक नहीं हो सकी। हालांकि बरेली विकास प्राधिकरण ने वह झुमका पाया डेलापीर चौराहे पर। शायद यही वजह है कि वह इस चौराहे पर झुमके की बड़ी-सी प्रतिकृति लगाएगा। विरोध इसी बात को लेकर है। दरअसल, डेलापीर पर आज भी आभूषणों से संबंधित कोई बाजार है ही नहीं। फल मंडी और हाईवे जरूर है और शायद यही वजह है कि बीडीए इसी जगह पर बरेली की पहचान के तौर पर झुमका और इस जैसी अन्य चीजों की प्रतिकृति लगाने की बात कर रहा है। बहरहाल, बीडीए की 14  मीटर की परिधि में झुमका की प्रतिकृति लगाने की योजना है। इस बाबत झुमके की डिजाइन मंगाई है और सर्राफा व्यावसायियों से झुमके की ऐसी प्रतिकृति बनाने को कहा गया है जिसमें सर्मा, मांझा, जरी-दरदोजी जैसी शहर की मशहूर चीजें भी शामिल हों। दरअसल, इसके जरिये बीडीए की योजना है कि वह डेलापीर को बाजार के तौर पर विकसित कर खरीदारों को आकर्षित कर सके। वहीं कुतुबखाना का तंग बाजार मुगलकाल से ही महिलाओं के बाजार के नाम से मशहूर रहा है। एक के बाद एक तंग गलियों में महिलाओं के बनाव-श्रंगार से लेकर सोने-चांदी के आभूषण तक इस बाजार में मिलते हैं। एक के बाद एक छोटी-छोटी दुकानें, बाहर तक फैले हुए बाजार आज भी वैसे ही हैं जैसे बरसों पहले थे।
निरंकार जी से मेरे संबंध उस समय और घनिष्ठि हो गये थे जब वह अमर उजाला में संपादकीय लिखा करते थे। वह बाल साहित्यकार थे और मैं अपनी कविताओं के सिलसिले में उनसे मिला करता था। तभी उन्होंने कई बार हरिवंश राय जी से अपनी दोस्ती का जिक्र किया था। ऐसे में तेजी जी के झुमके वाली बात भी उनके मुंह से सुनी थी। जहां तक झुमका प्रतिकृति की बात है तो कायदे से तो वह कुतुबखाना पर ही लगनी चाहिए लेकिन कुतुबखाना पहले ही इतना तंग बसा हुआ है कि यहां कोई प्रतिकृति लगायी ही नहीं जा सकती।
रमेश गौतम, नवगीतकार, बरेली
बाबू जी (निरंकार सेवक) और हरिवंश जी की दोस्ती किसी से छुपी नहीं है। अक्सर आते और घर पर ठहरते भी थे। ऐसे ही एक दिन योजना बनी कि हरिवंश जी का तेजी जी से विवाह करवा दिया जाए। इसी दौरान एक दिन झुमका की घटना भी हुई। रही झुमका की प्रतिकृति लगने की बात तो डेलापीर से इसका कोई मतलब ही नहीं है। यह कुतुबखाना पर ही लगनी चाहिए।
पूनम सेवक, पुत्रवधु निरंकार सेवक
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पहले भी गिर चुका है झुमका
1947 में फिल्म ‘देखो जी’ में सबसे पहले ऐसा ही एक गीत फिल्माया गया था। इस गीत को वली साहेब ने लिखा था इसके बोल थे, ‘झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में, होय झुमका गिरा रे, मोरा झुमका गिरा रे,’। इस गीत को शमशाद बेगम ने गाया था। हालांकि न तो वह फिल्म चली और गीत भी गुमनाम होकर रह गया। इसके अलावा पाकिस्तान में भी इसी तर्ज पर एक गीत बना था, ‘झुमका गिरा रे कराची के बाजार में’, 1963 में फिल्म ‘मां के आंसू’ में इस गीत को जगह मिली थी। मुशीर काजमी और शबाब केरानवी के लिखे इस गीत को लोगों ने काफी पसंद किया था लेकिन 1966 की ‘मेरा साया’ के आशा भोंसले के गाये गीत की मिठास को लोग आज तक नहीं भूले हैं।