Thursday, 3 November 2011

फिर सर सय्यद की ज़रूरत

”ऐसे पस्त हौसला, कम हिम्मत लोग, जो 6 करोड़ कि आबादी के बावजूद अपने बच्चों के लिए एक मदरसा कायम नहीं कर सकते, ऐसी क़ौम को तबाह होने दो. उनका सहयोग करना गुनाह है.” ये शब्द एक अंग्रेज़ के हैं, जो उसने सर सय्यद अहमद खां के बेटे के लंदन प्रवास के दौरान कहे थे. सिर्फ़ उस मदद के जवाब में, जो उन्होंने भारत में मुस्लिमों की शिक्षा के लिए चाही थी. कम-से-कम इतनी भयावह ताबीर तो नहीं हो सकती सय्यद अहमद खां के उस ख्वाब की, जो उन्होंने मुस्लिम क़ौम की बेहतरी के लिए देखा था. सर सय्यद अहमद खां वही हैं जिनको याद करना भी ज़रूरी नहीं समझा जाता और जिनकी कोशिशों का ज़िन्दा सुबूत अलीगढ़ की वह मुस्लिम यूनिवर्सिटी है, जिसके धड़कते सीने में आज हजारों नौजवान तालीम हासिल कर रहे हैं.
17 अक्तूबर, 1817 को दिल्ली में पैदा हुए सय्यद अहमद खां ने देश में पहली मुस्लिम यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ के उस इलाक़े में खोली जहाँ न तो ख़ास आबादी थी और जो इलाक़ा छावनी में आता था. इसके पीछे मक़सद उन बदहाल, ग़रीब छात्रों की पहुँच का था जो उच्च शिक्षा से दूर थे. यह यूनिवर्सिटी ख़ासकर, उस मुस्लिम क़ौम की आँखें खोलने के लिए थी जिनके लिए महज़ दीनवी तालीम ही सब कुछ थी और जो दूसरी क़ौमों के लिहाज़ से न सिर्फ़ पिछड़ती जा रही थी, बल्कि मुल्क़ के लिए बोझ समझी जाने लगी थी और बदहाली का शिकार थी.
किसी मुसव्विर की तरह मुस्लिम समाज की तस्वीर को शिक्षा के रंगों में रंगने की चाह में सर सय्यद का वह सपना कि मुसलमान तालीम याफ़्ता बनें और देश की कमज़ोर रीढ़ को मज़बूत बनायें, कुछ ख़ास आकार लेता नज़र नहीं आ रहा. इसकी बानगी यह है कि 54.6 फीसदी ग्रामीण और 60 फीसदी शहरी मुस्लिम आबादी आज भी स्कूलों से नावाकिफ़ है.
19वीं सदी में जब मुस्लिमों की आबादी 6 करोड़ थी, उस वक़्त सिर्फ़ बंगाल के ही मुस्लिमों में 4 लाख 90 हज़ार छात्र शुमार किये गये थे और आज हालात यह हैं कि पूरे देश के 90 फीसदी मुस्लिम हाईस्कूल तक पहुँचते-पहुँचते स्कूलों से किनारा कर लेते हैं. इसे मुसलमानों की उदासीनता कहें तो कहीं बेहतर होगा, क्योंकि सिर्फ़ बदहाली, ग़रीबी को कोसकर तालीम से कटे रहना कर्मगत दुर्दशा ही कही जा सकती है. या फिर इसे इच्छाशक्ति की कमी कह सकते हैं. मगर अफ़सोस यह है कि शुरू से छले जाते रहे मुसलमान आज भी राजनीति की बिसात पर मोहराभर बनते हैं और उनकी ग़फ़लत ने भी उन्हें हाशिये पर डाले रखा है. सच तो यह है कि हमें न किसी पार्टी की ज़रूरत है, न किसी कद्दावर नेता के सहयोग की, बल्कि एक बार फिर सर सय्यद की ज़रूरत है. वह सर सय्यद, जो जानते थे कि शिक्षा ही किसी क़ौम को ताक़तवर बना सकती है. यही वजह थी कि उन्होंने इसी एक पहलू पर ज़ोर दिया. राजनीति का खेल देश को बाँटने में तो कारगर रहा ही, मुस्लिमों को आज तक बेवकूफ़ बनाकर वोट हड़पने में कामियाब है और उनकी तरबियत के नाम पर मदरसायी शिक्षा को बढ़ावा देने में अग्रसर. मगर सिर्फ़ मदरसायी शिक्षा क्या इतनी फायदेमंद है. शायद नहीं और इसी बात का विरोध सर सय्यद ने भी किया था. वह महज़ पुराने ढर्रे पर दी जा रही नये समाज से काटकर दी जाने वाली तालीम के विरोधी थे. हालात आज भी लगभग वही हैं. मदरसे गुणवत्ता के लिहाज़ से अभी इतने मज़बूत नहीं बने हैं जो देश के विकास में सहयोग करने के क़ाबिल छात्र बना सकें. सरकारी स्कूल भी दोपहर का सड़ा भोजन तो परोस रहे हैं, पर अच्छी शिक्षा नहीं.
अपने ही देश में शरणार्थियों जैसी ज़िन्दगी बसर कर रहे 60.2 फीसदी मुस्लिम अब भी अपनी ज़मीन तक से महरूम हैं. 88 लाख सरकारी नौकरियों में मुस्लिमों का फीसद 4.9 ही है. ये सब आंकड़े क्या मुस्लिम क़ौम की दुर्दशा बताने और नाकारेपन को दर्शाने के लिए काफ़ी नहीं. ग़रीबी रेखा से नीचे रेंग रहे 94.9 फीसदी मुसलमान क्या अब भी जागेंगे और क्या आगे उन्हें देश का वह नेतृत्व मिलेगा जो हक़ीक़त में उनको उबारने में सहायक होगा.

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