कम आमदनी में ख़र्च कम कर देने का फ़ण्डा अगर परिवार के बजट के लिए फ़ायदेमन्द है तो लोकतन्त्र की माली हालत में भी सुधार जनसंख्या को न बढ़ा कर किया जा सकता है। आय कम तो ख़र्च कम जैसी नीति रोज़गार, रोटी, पर भी लागू होनी चाहिए कि रोज़गार कम, अनाज कम तो बच्चे भी कम।
जिस देश में दुनिया के सबसे ज़्यादा भूखे हों, बिहार, उड़ीसा, बंगाल जैसे राज्यों में लोग सिर्फ़ भरपेट रोटी के लिए अपने बच्चों को बेचने पर मजबूर हों, वहाँ ज़्यादा से ज़्यादा बच्चों को जन्म देना ईश्वरीय वरदान किस तरह ठहराया जा सकता है! इस मुल्क की बदनसीबी कि इस देश में राजनेताओं की शक्ल में कूटनीतिज्ञ बहुत हैं लेकिन मुल्क के बारे में सोचने-करने वाले सच्चे सेवक कम। यही वजह है कि कम बच्चे पैदा करने की बात कोई राजनेता नहीं करता। ग़रीबी की रेखा से नीचे जीने वाले लोगों को तरह-तरह के राशन-कार्ड तो थमा दिए जाते हैं, बच्चों को श्रम से बचाने को स्कूलों में दोपहर का खाना और रुपये तो मुहैया कराए जाते हैं लेकिन लोगों से दो से ज़्यादा बच्चे पैदा न करने की बात कहकर इस बदहाली को ही ख़त्म करने की नींव नहीं डाली जाती जो कि एक स्थायी समाधान है, बेरोज़गारी, मुफ़लिसी से पार पाने का और अगर यह आज मज़बूती से लागू हो तो अगले पचास सालों में देश की माली हालत में तेज़ी से सुधार देखने को मिलेगा। चीन की आबादी हिन्दुस्तान से ज़्यादा है और उसके कड़े क़ानून के आगे लोग कम बच्चे पैदा करने को मजबूर हैं और यही वजह है कि वह तरक्की पर तरक्की कर माली तौर पर मज़बूत हो रहा है और हमारा मुल्क 2036 तक आबादी के लिहाज़ से चीन से भी दोबाला हो जाएगा। यह खु़शी की बात है कि इस बार के उत्तराखण्ड के निकाय चुनाव में चुनाव आयोग ने यह फ़ैसला राज्य में लागू कर दिया है कि 27 अप्रैल 2003 के बाद दो से ज़्यादा बच्चों वाले लोग चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराए जाएंगे। यही अगर लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में भी लागू हो तो हालात और बेहतर होने की उम्मीद है। ऐसे में जनता को न सिर्फ़ अच्छा संदेश जाएगा बल्कि जनता पर भी यही बात सरकारी सेवाओं के तौर पर लागू की जा सकती है। थोड़ी जागरुकता, थोड़ा अंकुश देश की आबादी को नियन्त्रित करने का ज़रिया बन सकते हैं।
अफ़सोस लोकतन्त्र में वोटों के खिसक जाने के डर से राजनेता कम बच्चे पैदा करने की बात को अपने चुनावी भाषण का हिस्सा नहीं बनाते क्योंकि वहाँ वोट अहम हो जाते हैं देश की भलाई का मुद्दा हल्का पड़ जाता है फिर अगर एक पार्टी इस मुद्दे को छूएगी तो दूसरी इसकी मुख़ालफ़त कर वोट हथियाने की फि़राक़ में रहेगी। इसके पीछे एक कारण शायद संजय गाँधी के जबरिया अभियान की आलोचना रही हो लेकिन कड़ुवी सच्चाई यह है कि नेताओं के अपने बच्चे ही दो से ज़्यादा हैं, ऐसे में वह आबादी को काबू रखने की बात जनता से किस मुँह से कहें! यह तो जनता को समझना चाहिए कि उसे आने वाली पीढ़ी को बेरोज़गारी, अनाज-पानी की कमी और चिडि़या जैसे रिहाइशी घर देने हैं या एक अच्छा जीवन!
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