भय्या दूज पर सब बहनें अपने भाइयों की लम्बी उम्र की दुआ करती हैं। भाई चाहे कैसा भी क्यों न हो, बहन के लिए तो प्यार का हक़दार ही रहता है। फिर ऐसी क्या वजह हुई कि रावण की छवि का आकलन एक भाई से अलग हटकर राक्षस के रूप में किया जाता रहा है। शूर्पणखा के प्रेम निवेदन को तिरस्कृत करके उसकी नाक काट लेना अगर लक्ष्मण के लिए भाई की आज्ञा का धर्म था तो अपनी बहन की कटी नाक का बदला लेना भी तो एक भाई होने के नाते रावण का कर्तव्य था, वरना दुनिया उसे धिक्कारती और बहन उलाहने देती। ऐसे में तो और भी जब वह एक देश का शक्तिशाली राजा और प्यार करने वाला बड़ा भाई था।
रावण ने नाक काटने का बदला नाक पर वार करके ही लिया। उसने घर की धरोहर, इज़्ज़त समझी जाने वाली सीता का अपहरण करके अपनी बहन की कटी नाक का बदला लिया। हालाँकि इसे सही तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन यहाँ बात सही-ग़लत की नहीं, उस धारणा की है जो कहीं-कहीं दुरुस्त नहीं लगती। रावण की उस इन्सानियत को दरकिनार कर दिया जाता है जिसका परिचय उसने सीता जी को बाइज़्ज़त अपने महल में सुरक्षित स्थान पर रखकर दिया। रावण ने जुर्म किय था। उसकी सज़ा उसको मिली, मगर लक्ष्मण के क्रोध की अग्नि ने एक औरत पर शस्त्र उठाकर किस तरह का क्षत्रिय धर्म अंजाम दिया, उसकी नाक काटकर और उसे ज़िन्दगी भर के लिए कुरूप बनाकर।
अगर अपहरण करना इतना बड़ा जुर्म है तो बलात्कार तो अक्षम्य है। फिर क्यों रावण को तो माफ नहीं किया गया, बल्कि वह राक्षस और घृणा का पात्र बनकर हमारे यहाँ विद्यमान है और हर साल आग के हवाले किया जाता है। मगर स्वर्ण लोक के देवता इन्द्र क्यों किसी दण्ड के भागीदार नहीं बने। बल्कि उनके गौतम ऋषि की पत्नी के साथ जबरन सम्भोग करने का दण्ड भी पृथ्वी, वृक्षों और स्त्री जाति के सिर डाल दिया गया। क्या सिर्फ़ इसीलिए क्योंकि वह देवता थे और रावण दूसरे देश का राजा और राक्षसी माँ की सन्तान। शायद यही भेद अब इस तरह रूप ले रहा है कि कुछ लोग रावण के राक्षसी रूप को तिलांजलि दे मन्दिर बनाकर उसे पूजने लगे हैं। नोएडा के एक गाँव में न सिर्फ़ रावण का मन्दिर है, बल्कि लोग अपने बच्चों का ‘सर नेम’ राक्षस रख रहे हैं। उनका तर्क है कि ‘रक्षक’ शब्द से ही ‘राक्षस’ शब्द निकला है, जिसे ग़लत अर्थ में लिया गया। दूसरी ओर यह कुछ ऐसा भी हुआ लगता है कि जिन उदार दिल वाले राम ने रावण को महज़ सज़ा देकर मामला रफ़ा- दफ़ा कर दिया हो, उसे जनता धीरे-धीरे इतना बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती रही कि रावण की छवि को न सिर्फ़ चरित्र में, बल्कि सूरत में भी राक्षस की तरह डरावना दर्शाकर उससे नफ़रत तो की ही जाती रहे। उसकी अच्छाइयों को भी ताक पर रखकर उसे हर साल जलाया जाने लगा।
Tuesday 15 November 2011
Saturday 12 November 2011
हिन्दी देवी क्यों नहीं
दलित समाज की अंग्रेज़ी देवी की प्रतिमा अपने 800 वर्ग फुट के मन्दिर में विराजमान हो चुकी है। भाषा किसी धर्म, देश की सीमा में बँधी नहीं होती, लेकिन फिर भी मातृभाषा ठीक उसी तरह सबसे पहले आदर-सम्मान की हक़दार है जैसे मौसी से पहले माँ। मगर इस हिन्दी माँ को कमतर तो समझा ही जाता रहा, अब इसका हक़ भी अंग्रेज़ी मौसी को दे दिया गया। वह भी हिन्दी प्रदेश के हिन्दी ज़िले में। लखीमपुर खीरी के नालन्दा पब्लिक शिक्षा निकेतन में मन्दिर बनाकर अंग्रेज़ी देवी की मूर्ति स्थापित करायी गयी है।
अफ़सोस यह है कि जो हिन्दी हमारे पूर्वजों से लेकर हमारी मातृभाषा कहलाने की हक़दार है उस भाषा को इतना भी सम्मान नहीं दिया गया कि अंग्रेज़ी देवी के समकक्ष ही समझा जाता। पड़ोसी मुल्क़ चीन में लोग बेशक दीगर भाषाओं को सीखते हैं, लेकिन सरकारी कामकाज और यहाँ तक कि विदेश में जाकर भी चाइनीज़ ही बोलते हैं। चीन हमसे बड़ी और तेज़ी से उभरती अर्थव्यवस्था है, फिर भी वहाँ के लोग अपनी संस्कृति, भाषा और जड़ों से मज़बूती से जुड़े रहकर विकास की बात करते हैं।
कहीं यह क्रिया की प्रतिक्रिया तो नहीं! वेदों का आधार संस्कृत भाषा है। उस संस्कृत भाषा का दलित समाज घोर विरोधी है। इसी संस्कृत में वह मनुस्मृति भी है जिस पर डॉ. भीमराव अम्बा वाडेकर को घोर आपत्ति थी। इसी कारण सदियों से चले आ रहे उच्च वर्णों के शोषण, तिरस्कार से आजिज़ आकर उन्होंने ढाई लाख शूद्र हिन्दुओं के साथ सनातन धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। यह उनका विरोध ओर उच्च वर्णों की सदियों की निरंकुशता का परिणाम था। वही बात आज हिन्दी के तिरस्कार और अंग्रेज़ी को देवी के रूप में महिमामण्डित करने में भी दिखायी दे रही है, क्योंकि हिन्दी उसी संस्कृत के गर्भ से निकली है। मगर इस तरह का विरोध कहाँ तक सही है। हमारी जड़ें हिन्दू समाज में इस तरह मिली हैं कि हम अलग नहीं हो सकते। इस बात के लिए इतना कहना ही काफी है कि जिस मूर्ति पूजा को महात्मा बुद्ध ने वर्जित किया था वही मूर्ति पूजा, महात्मा बुद्ध की प्रतिमा बनाकर अञ्जाम दी जाती है। यह सनातन धर्म या भारतीय समाज, माहौल का असर नहीं तो और क्या है। ऐसे में कितना सही है बुनियाद जुदा कर अलग ईंट को चुनना। जहाँ तक भाषा की बात है तो भाषा किसी धर्म, देश की हद में बँधकर न तो रह पायी है और न ही किसी एक धर्म-पन्थ का ठप्पा लगाकर उसे देखना सही है। जो बदसलूकी, अनदेखी उर्दू के साथ उसे मुस्लिम समाज का हिस्सा मानकर की जाती है, क्या वही तिरस्कार संस्कृत-हिन्दी के साथ भी दलित समाज उसे हिन्दुओं की बपौती मानकर नहीं कर रहा। अगर अंग्रेज़ी को तरक्की की भाषा मानकर, देवी बनाकर पूजा जा सकता है तो हिन्दी को भी मातृभाषा होने के नाते अंग्रेज़ी से ज्य़ादा सम्मान देने की ज़रूरत है।
अफ़सोस यह है कि जो हिन्दी हमारे पूर्वजों से लेकर हमारी मातृभाषा कहलाने की हक़दार है उस भाषा को इतना भी सम्मान नहीं दिया गया कि अंग्रेज़ी देवी के समकक्ष ही समझा जाता। पड़ोसी मुल्क़ चीन में लोग बेशक दीगर भाषाओं को सीखते हैं, लेकिन सरकारी कामकाज और यहाँ तक कि विदेश में जाकर भी चाइनीज़ ही बोलते हैं। चीन हमसे बड़ी और तेज़ी से उभरती अर्थव्यवस्था है, फिर भी वहाँ के लोग अपनी संस्कृति, भाषा और जड़ों से मज़बूती से जुड़े रहकर विकास की बात करते हैं।
कहीं यह क्रिया की प्रतिक्रिया तो नहीं! वेदों का आधार संस्कृत भाषा है। उस संस्कृत भाषा का दलित समाज घोर विरोधी है। इसी संस्कृत में वह मनुस्मृति भी है जिस पर डॉ. भीमराव अम्बा वाडेकर को घोर आपत्ति थी। इसी कारण सदियों से चले आ रहे उच्च वर्णों के शोषण, तिरस्कार से आजिज़ आकर उन्होंने ढाई लाख शूद्र हिन्दुओं के साथ सनातन धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। यह उनका विरोध ओर उच्च वर्णों की सदियों की निरंकुशता का परिणाम था। वही बात आज हिन्दी के तिरस्कार और अंग्रेज़ी को देवी के रूप में महिमामण्डित करने में भी दिखायी दे रही है, क्योंकि हिन्दी उसी संस्कृत के गर्भ से निकली है। मगर इस तरह का विरोध कहाँ तक सही है। हमारी जड़ें हिन्दू समाज में इस तरह मिली हैं कि हम अलग नहीं हो सकते। इस बात के लिए इतना कहना ही काफी है कि जिस मूर्ति पूजा को महात्मा बुद्ध ने वर्जित किया था वही मूर्ति पूजा, महात्मा बुद्ध की प्रतिमा बनाकर अञ्जाम दी जाती है। यह सनातन धर्म या भारतीय समाज, माहौल का असर नहीं तो और क्या है। ऐसे में कितना सही है बुनियाद जुदा कर अलग ईंट को चुनना। जहाँ तक भाषा की बात है तो भाषा किसी धर्म, देश की हद में बँधकर न तो रह पायी है और न ही किसी एक धर्म-पन्थ का ठप्पा लगाकर उसे देखना सही है। जो बदसलूकी, अनदेखी उर्दू के साथ उसे मुस्लिम समाज का हिस्सा मानकर की जाती है, क्या वही तिरस्कार संस्कृत-हिन्दी के साथ भी दलित समाज उसे हिन्दुओं की बपौती मानकर नहीं कर रहा। अगर अंग्रेज़ी को तरक्की की भाषा मानकर, देवी बनाकर पूजा जा सकता है तो हिन्दी को भी मातृभाषा होने के नाते अंग्रेज़ी से ज्य़ादा सम्मान देने की ज़रूरत है।
Thursday 3 November 2011
फिर सर सय्यद की ज़रूरत
”ऐसे पस्त हौसला, कम हिम्मत लोग, जो 6 करोड़ कि आबादी के बावजूद अपने बच्चों के लिए एक मदरसा कायम नहीं कर सकते, ऐसी क़ौम को तबाह होने दो. उनका सहयोग करना गुनाह है.” ये शब्द एक अंग्रेज़ के हैं, जो उसने सर सय्यद अहमद खां के बेटे के लंदन प्रवास के दौरान कहे थे. सिर्फ़ उस मदद के जवाब में, जो उन्होंने भारत में मुस्लिमों की शिक्षा के लिए चाही थी. कम-से-कम इतनी भयावह ताबीर तो नहीं हो सकती सय्यद अहमद खां के उस ख्वाब की, जो उन्होंने मुस्लिम क़ौम की बेहतरी के लिए देखा था. सर सय्यद अहमद खां वही हैं जिनको याद करना भी ज़रूरी नहीं समझा जाता और जिनकी कोशिशों का ज़िन्दा सुबूत अलीगढ़ की वह मुस्लिम यूनिवर्सिटी है, जिसके धड़कते सीने में आज हजारों नौजवान तालीम हासिल कर रहे हैं.
17 अक्तूबर, 1817 को दिल्ली में पैदा हुए सय्यद अहमद खां ने देश में पहली मुस्लिम यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ के उस इलाक़े में खोली जहाँ न तो ख़ास आबादी थी और जो इलाक़ा छावनी में आता था. इसके पीछे मक़सद उन बदहाल, ग़रीब छात्रों की पहुँच का था जो उच्च शिक्षा से दूर थे. यह यूनिवर्सिटी ख़ासकर, उस मुस्लिम क़ौम की आँखें खोलने के लिए थी जिनके लिए महज़ दीनवी तालीम ही सब कुछ थी और जो दूसरी क़ौमों के लिहाज़ से न सिर्फ़ पिछड़ती जा रही थी, बल्कि मुल्क़ के लिए बोझ समझी जाने लगी थी और बदहाली का शिकार थी.
किसी मुसव्विर की तरह मुस्लिम समाज की तस्वीर को शिक्षा के रंगों में रंगने की चाह में सर सय्यद का वह सपना कि मुसलमान तालीम याफ़्ता बनें और देश की कमज़ोर रीढ़ को मज़बूत बनायें, कुछ ख़ास आकार लेता नज़र नहीं आ रहा. इसकी बानगी यह है कि 54.6 फीसदी ग्रामीण और 60 फीसदी शहरी मुस्लिम आबादी आज भी स्कूलों से नावाकिफ़ है.
19वीं सदी में जब मुस्लिमों की आबादी 6 करोड़ थी, उस वक़्त सिर्फ़ बंगाल के ही मुस्लिमों में 4 लाख 90 हज़ार छात्र शुमार किये गये थे और आज हालात यह हैं कि पूरे देश के 90 फीसदी मुस्लिम हाईस्कूल तक पहुँचते-पहुँचते स्कूलों से किनारा कर लेते हैं. इसे मुसलमानों की उदासीनता कहें तो कहीं बेहतर होगा, क्योंकि सिर्फ़ बदहाली, ग़रीबी को कोसकर तालीम से कटे रहना कर्मगत दुर्दशा ही कही जा सकती है. या फिर इसे इच्छाशक्ति की कमी कह सकते हैं. मगर अफ़सोस यह है कि शुरू से छले जाते रहे मुसलमान आज भी राजनीति की बिसात पर मोहराभर बनते हैं और उनकी ग़फ़लत ने भी उन्हें हाशिये पर डाले रखा है. सच तो यह है कि हमें न किसी पार्टी की ज़रूरत है, न किसी कद्दावर नेता के सहयोग की, बल्कि एक बार फिर सर सय्यद की ज़रूरत है. वह सर सय्यद, जो जानते थे कि शिक्षा ही किसी क़ौम को ताक़तवर बना सकती है. यही वजह थी कि उन्होंने इसी एक पहलू पर ज़ोर दिया. राजनीति का खेल देश को बाँटने में तो कारगर रहा ही, मुस्लिमों को आज तक बेवकूफ़ बनाकर वोट हड़पने में कामियाब है और उनकी तरबियत के नाम पर मदरसायी शिक्षा को बढ़ावा देने में अग्रसर. मगर सिर्फ़ मदरसायी शिक्षा क्या इतनी फायदेमंद है. शायद नहीं और इसी बात का विरोध सर सय्यद ने भी किया था. वह महज़ पुराने ढर्रे पर दी जा रही नये समाज से काटकर दी जाने वाली तालीम के विरोधी थे. हालात आज भी लगभग वही हैं. मदरसे गुणवत्ता के लिहाज़ से अभी इतने मज़बूत नहीं बने हैं जो देश के विकास में सहयोग करने के क़ाबिल छात्र बना सकें. सरकारी स्कूल भी दोपहर का सड़ा भोजन तो परोस रहे हैं, पर अच्छी शिक्षा नहीं.
अपने ही देश में शरणार्थियों जैसी ज़िन्दगी बसर कर रहे 60.2 फीसदी मुस्लिम अब भी अपनी ज़मीन तक से महरूम हैं. 88 लाख सरकारी नौकरियों में मुस्लिमों का फीसद 4.9 ही है. ये सब आंकड़े क्या मुस्लिम क़ौम की दुर्दशा बताने और नाकारेपन को दर्शाने के लिए काफ़ी नहीं. ग़रीबी रेखा से नीचे रेंग रहे 94.9 फीसदी मुसलमान क्या अब भी जागेंगे और क्या आगे उन्हें देश का वह नेतृत्व मिलेगा जो हक़ीक़त में उनको उबारने में सहायक होगा.
17 अक्तूबर, 1817 को दिल्ली में पैदा हुए सय्यद अहमद खां ने देश में पहली मुस्लिम यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ के उस इलाक़े में खोली जहाँ न तो ख़ास आबादी थी और जो इलाक़ा छावनी में आता था. इसके पीछे मक़सद उन बदहाल, ग़रीब छात्रों की पहुँच का था जो उच्च शिक्षा से दूर थे. यह यूनिवर्सिटी ख़ासकर, उस मुस्लिम क़ौम की आँखें खोलने के लिए थी जिनके लिए महज़ दीनवी तालीम ही सब कुछ थी और जो दूसरी क़ौमों के लिहाज़ से न सिर्फ़ पिछड़ती जा रही थी, बल्कि मुल्क़ के लिए बोझ समझी जाने लगी थी और बदहाली का शिकार थी.
किसी मुसव्विर की तरह मुस्लिम समाज की तस्वीर को शिक्षा के रंगों में रंगने की चाह में सर सय्यद का वह सपना कि मुसलमान तालीम याफ़्ता बनें और देश की कमज़ोर रीढ़ को मज़बूत बनायें, कुछ ख़ास आकार लेता नज़र नहीं आ रहा. इसकी बानगी यह है कि 54.6 फीसदी ग्रामीण और 60 फीसदी शहरी मुस्लिम आबादी आज भी स्कूलों से नावाकिफ़ है.
19वीं सदी में जब मुस्लिमों की आबादी 6 करोड़ थी, उस वक़्त सिर्फ़ बंगाल के ही मुस्लिमों में 4 लाख 90 हज़ार छात्र शुमार किये गये थे और आज हालात यह हैं कि पूरे देश के 90 फीसदी मुस्लिम हाईस्कूल तक पहुँचते-पहुँचते स्कूलों से किनारा कर लेते हैं. इसे मुसलमानों की उदासीनता कहें तो कहीं बेहतर होगा, क्योंकि सिर्फ़ बदहाली, ग़रीबी को कोसकर तालीम से कटे रहना कर्मगत दुर्दशा ही कही जा सकती है. या फिर इसे इच्छाशक्ति की कमी कह सकते हैं. मगर अफ़सोस यह है कि शुरू से छले जाते रहे मुसलमान आज भी राजनीति की बिसात पर मोहराभर बनते हैं और उनकी ग़फ़लत ने भी उन्हें हाशिये पर डाले रखा है. सच तो यह है कि हमें न किसी पार्टी की ज़रूरत है, न किसी कद्दावर नेता के सहयोग की, बल्कि एक बार फिर सर सय्यद की ज़रूरत है. वह सर सय्यद, जो जानते थे कि शिक्षा ही किसी क़ौम को ताक़तवर बना सकती है. यही वजह थी कि उन्होंने इसी एक पहलू पर ज़ोर दिया. राजनीति का खेल देश को बाँटने में तो कारगर रहा ही, मुस्लिमों को आज तक बेवकूफ़ बनाकर वोट हड़पने में कामियाब है और उनकी तरबियत के नाम पर मदरसायी शिक्षा को बढ़ावा देने में अग्रसर. मगर सिर्फ़ मदरसायी शिक्षा क्या इतनी फायदेमंद है. शायद नहीं और इसी बात का विरोध सर सय्यद ने भी किया था. वह महज़ पुराने ढर्रे पर दी जा रही नये समाज से काटकर दी जाने वाली तालीम के विरोधी थे. हालात आज भी लगभग वही हैं. मदरसे गुणवत्ता के लिहाज़ से अभी इतने मज़बूत नहीं बने हैं जो देश के विकास में सहयोग करने के क़ाबिल छात्र बना सकें. सरकारी स्कूल भी दोपहर का सड़ा भोजन तो परोस रहे हैं, पर अच्छी शिक्षा नहीं.
अपने ही देश में शरणार्थियों जैसी ज़िन्दगी बसर कर रहे 60.2 फीसदी मुस्लिम अब भी अपनी ज़मीन तक से महरूम हैं. 88 लाख सरकारी नौकरियों में मुस्लिमों का फीसद 4.9 ही है. ये सब आंकड़े क्या मुस्लिम क़ौम की दुर्दशा बताने और नाकारेपन को दर्शाने के लिए काफ़ी नहीं. ग़रीबी रेखा से नीचे रेंग रहे 94.9 फीसदी मुसलमान क्या अब भी जागेंगे और क्या आगे उन्हें देश का वह नेतृत्व मिलेगा जो हक़ीक़त में उनको उबारने में सहायक होगा.
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