Wednesday 30 October 2019

दम मस्त कलंदर

दम मस्त कलंदर

‘लाल मेरी पत रखियो बला झूले लालण...दमादम मस्त कलंदर’ रगों में जोश भर देने वाली इस धुन पर हर जिस्म थिरकता है, हर दिल मस्ती में डूब जाता है। कभी सूफी की कलम से निकला और खानकाहों में गूंजने वाला यह सूफियाना कलाम गायिकी का एक शाहकार कहा जा सकता है। ‘दमादम मस्त कलंदर’ का मतलब है, हर सांस, दम में मस्ती रखने वाला फकीर यानी कलंदर। सिंध प्रांत के सेहवन के मशहूर संत सखी शाहबाज कलंदर ही इस सूफियाना कलाम के महानायक हैं। लाल शाहबाज कलंदर ही झूलेलाल कलंदर हैं। कहा जाता है कि हिंदवी के पहले कवि अमीर खुसरो ने सबसे पहले लाल शाहबाज कलंदर के संबोधन में इसकी रचना की थी। बाद में इसमें कुछ पंक्तियां बाबा बुल्लेशाह ने भी जोड़ीं।
सूफियों की खासियत उनका संगीत और कलाम है। इसमें मदमस्त होकर ही उनकी रूह अपने रब को करीब महसूस करती है। सूफियों को मदमस्त करते आ रहे इस कलाम की ही यह खासियत ही कही जा सकती है कि उनका सूफियाना कलाम हर धर्म-मजहब और संप्रदाय की हदों को तोड़ता हुआ सुनने वालों को प्रेम के बहाव में बहाता लिए चला जाता है। यही वजह है कि कभी मजारों पर ‘दम मस्त कलंदर’ की गूंज इंसान को किसी रूहानी डोर से बांधती हुई सी लगती है तो कभी प्रभु की महिमा का बखान करने वाले संतों के प्रवचनों में इसका असर घुला नजर आता है। ऐसे में धर्म-मजहब के दायरों को दरकिनार करते हुए मोरारी बापू जैसे संतों के प्रवचन का हिस्सा भी बनता रहा है। यही वजह है कि अपने प्रवचनों के दौरान बीच-बीच में फिल्मी गीतों के गहरे अर्थ और उनका ईश्वर से संबंध स्पष्ट करते बापू भी ‘लाल मेरी पत रखियो बला झूले लालण...दमादम मस्त कलंदर अली दमदम दे अंदर’, की मोहिनी धुन को गाते नजर आते हैं, तो उनके सुनने वाले उनका साथ देते, उस पर झूमते नजर आते हैं।
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डॉ. चंद्र त्रिखा जिन्होंने ‘सूफी लौट आए हैं’ किताब में सूफियों के जीवन और नृत्य-संगीत को बड़े ही रोचक अंदाज में लिखा है। वह बताते हैं कि हजरत शाहबाज कलंदर के बारे में दो गीत बेहद प्रचलित रहे हैं, ‘लाल मेरी पत रखियो बला झूले लालण’ और ‘झूले लाल शाहबाज कलंदर।’ इन दोनों गीतों के बीच ‘झूलेलाल’ साझी कड़ी हैं। शाहबाज कलंदर कब और कहां पैदा हुए इसका कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिलता। मगर उनकी जीवनयात्रा 1324 में पूरी हुई थी। उनकी दरगाह पर हर मजहब के मानने वालों की भारी भीड़ की एक वजह यह भी है कि शाहबाज कलंदर कर्मकांड के बजाय दिल के हाल पर ज्यादा जोर देते थे और कहते थे कि ‘जो भी करना है दिल से करो।’ इस महान सूफी का असल नाम हजरत सैयद उस्मान था, मगर उनके सुर्ख रंग का लिबास पहनने की वजह से वह ‘लाल कलंदर’ कहलाने लगे।
कहा जाता है कि सूफी दार्शनिक और संत लाल शाहबाज कलंदर गजनवी और गौरी वंशों के अलावा फारस के महान कवि रूमी के भी समकालीन थे। उनके पूर्वज बगदाद से ताल्लुक रखते थे। उन्होंने कई देशों की यात्राएं की थीं, लेकिन अंत में पाकिस्तान के सिंध प्रांत में आकर बस गए थे। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि वह भारत भी आए थे, इसकी एक वजह यह भी है कि वह संस्कृत के भी अच्छे जानकार थे। उन्होंने मदरसों में तालीम दी और कई किताबें भी लिखीं थीं। 
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साज-आवाज की महफिलों से फिल्मों तक
आवाज की दुनिया के चमकते सितारों नूरजहां, नुसरत फतेह अली खां, आबिदा परवीन, अमजद साबरी, रेशमा और नाहिद अख्तर ने भी इस सूफियाना कलाम को आवाज दी। वहीं रूना लैला, जगजीत सिंह, मीका सिंह आदि कितने ही गायकों ने इसे अपनी आवाज से सजाया है और यह इसकी खासियत ही है कि गायिकी और आवाज के हर अंदाज में इसने दिलों में अपनी जगह बनाने में कामयाबी पाई है।
यह इसका आकर्षण ही है कि सुरों की मलिका आशा भोसले ने भी इसे अपनी मधुर आवाज दी है। इसके अलावा कर्रतुल ऐन बलोच, गुरदास मान, दलेर मेहदी, नूरन सिस्टर्स, जसपिंदर नरूला, सनम मरवी जैसे गायकों के भी यह कलाम सिर चढ़ कर बोला है यह इसका आकर्षण ही है कि सुरों की मलिका आशा भोसले ने भी इसे अपनी मधुर आवाज दी है। इसके अलावा कर्रतुल ऐन बलोच, गुरदास मान, दलेर मेहदी, नूरन सिस्टर्स, जसपिंदर नरूला जैसे गायकों के भी यह कलाम सिर चढ़ कर बोला है।
रैप गायक हनी सिंह, रॉक बैंड जुनून के अलावा सूफी स्ट्रिंग्स-दी आर्ट ऑफ लिविंग अलबम में सिद्धार्थ मोहन भी मस्त कलंदर करते नजर आते हैं।
वहीं शंकर महादेवन जैसे आवाज के जादूगर भी दममस्त कलंदर’ के असर से बच नहीं सके हैं।  
1955 में आई फिल्म ‘मस्त कलंदर’ में ‘दम मस्त कलंदर’ के टाइटल से एक गीत बना था। इसे आवाज दी थी मुहम्मद रफी और शमशाद बेगम ने।
1974 में फिल्म ‘एक से बढ़कर एक’ में रूना लैला ने ‘दमादम मस्त कलंदर को अपनी आवाज दी और तब से आज तक यह कितने ही गायकों के जरिए गाया जा चुका है। इसके बावजूद इसकी मिठास कम नहीं होती।
2013 में आई फिल्म ‘डेविड’ में रेखा भारद्वाज की आवाज में एक बार फिर यही सूफियाना कलाम दिलों को लुभाने आया।
फिल्म ‘धनक’ में एक बार फिर इसी कलाम को नए अंदाज में और अंग्रेजी शब्दों की जुगलबंदी के साथ पेश किया गया।
वहीं फिल्म ‘दी डे’ में मीका सिंह ने इसे आवाज देकर अपने मस्त अंदाज में गाया है।
पिछले साल प्रदर्शित हुई फिल्म ‘पार्टीशन 1947’ में सूफियाना कलाम गाने के लिए मशहूर गायक हंसराज हंस ने भी ‘दमादम मस्त कलंदर’ को अपनी आवाज में पेश किया।
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पाकिस्तानी फिल्मों में छाया रहा ‘मस्त कलंदर’  
सबसे पहले गायिका और अभिनेत्री नूरजहां ने इसे अपनी आवाज दी थी। ब्लैक एंड व्हाइट स्क्रीन पर अभिनेत्री इसको मस्ती में डूब कर गाती नजर आती है। इसके बाद सूफी शैली के मशहूर कव्वाल नुसरत फतेह अली खान इसे पेश करते नजर आए। देश-विदेश के कितने ही मंचों पर उनकी आवाज में लोग ‘दम मस्त’ होते नजर आए।
1966 में पाकिस्तानी फिल्म ‘जलवा’ में इसे अहमद रुश्दी और मुनीर हुसैन की गाई कव्वाली ‘दम मस्त कलंदर अली अली’, के तौर पर सुना जा सकता है। वहीं अंग्रेजी शब्दों के घालमेल के साथ अहमद रुश्दी की आवाज में इसे ‘दमादम मस्त कलंदर, सखी शाहबाद कलंदर, दिस इज दी सॉंग द वंडर’ शब्दों के साथ रुपहले पर्दे पर देखा गया।
दमादम को तर्ज में ढालने वाले को भुला दिया गया
लाहौर के मशहूर फिल्म संगीतकार मास्टर आशिक हुसैन की 2017 में मृत्यु हो गई। वह लम्बे समय से बदहाली में जीवन गुजार रहे थे। पाकिस्तान के एक मशहूर अखबार ने उन पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी। आज भले ही ‘दमादम मस्त कलंदर’ को नामी फनकार अपनी आवाज, तर्ज देकर सजाते हों, मगर इसको यादगार धुन से सबसे पहले मास्टर आशिक हुसैन ने ही सजाया था। उन्होंने पाकिस्तान की कई फिल्मों में संगीत भी दिया था। मगर बाद में उनके हालात बद से बदतर होते चले गए और किसी ने उनकी सुध नहीं ली। अपनी इस टीस को वह कई जगह बयां करते भी नजर आते हैं। उन्होंने कहा था कि ‘सबसे पहले ‘दमादम मस्त कलंदर’, की धुन मैंने ही बनाई थी, जिसे लिखकर दिया था शायर ‘सागर’ सिद्दीकी ने।’ ‘सागर’ को ‘दर्द का शायर’ के नाम से भी जाना जाता है। उनका जीवन बदहाली में और फुटपाथ पर गुजरा। बाद में गायिका नूरजहां ने इसे अपनी आवाज से सजाया। आगे चलकर यही धुन पूरी दुनिया में मशहूर हो गई। मगर इसको इस तर्ज में ढालने वाले को भुला दिया गया।
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मशहूर बांग्लादेशी पॉप गायिका रूना लैला भारत और पाकिस्तान के अलावा विश्व के अन्य देशों में भी जाना-पहचाना नाम हैं। करीब 80 के दशक में ‘मेरा बाबू छैल छबीला मैं तो नाचूंगी’ और ‘दमादम मस्त कलंदर’ को अपनी जादुई आवाज में स्वरबद्ध कर उन्होंने श्रोताओं को झूमने पर मजबूर कर दिया था। बाद में वह कई टीवी चैनलों के संगीत कार्यक्रमों में भी विशेष भूमिका निभाती नजर आईं। मगर उनको जो प्रसिद्धि ‘दमादम मस्त कलंदर’ से मिली उसकी बात ही अलग है। भारत में वह खासकर अपने गाए इसी गीत की वजह से जानी जाती हैं। इसके बारे में उनका यही कहना है, ‘सगीत की अपनी कोई सीमा नहीं होती, संगीत का अपना कोई धर्म नहीं होता। हम जहां भी गाते हैं प्यार और अमन का पैगाम ही फैलाते हैं। जहां तक भारत का सवाल है, मैं इसे अपना दूसरा मुल्क मानती हूं।’
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आवाज के जादूगरों की नजर में...
मौसिकी अहसासात की, जज्बात की बारीक जबान है। ‘दम मस्त कलंदर’ मस्तों की, रिंदों की धमाल है। वह अल्लाह की तौहीद के रंग में जब मस्त हो जाते हैं तो उस घड़ी को फकीरों ने ट्रिब्यूट दिया है हजरत लाल शाहबाज कलंदर को। 
दमादम मस्त कलंदर हर धार्मिक मंच पर, हर जगह और हर मौके पर गाया जाता रहा है। किसी भी दूसरे के कलाम को हर मजहब, हर धर्म कुबूल नहीं करता मगर इसे हर किसी ने दिल से अपनाया। वहीं अमेरिकन ने फिल्म बनाई है उसमें ए.आर.रहमान का संगीत है, उसमें मैंने भी इसी को गाया है और यह बहुत बड़ी बात है। सबसे पहले मैडम नूरजहां ने इसे गाया था। बाद में दूसरे गायकों ने गाया। जैसे किसी के अंदर होती है न इंटरनल फीलिंग, जिसमें भाव वही रहते हैं, लेकिन गाने वाला रूह अपनी डालता है। मैं तो इसे बचपन से गा रहा हूं और हर जगह गाता हूं। होश संभालते ही यह कलाम गाया। यह इसलिए खास है, क्योंकि हर धर्म का आदमी इसे सुनता है। किसी भी जगह गाओ, कभी किसी तरह की किंतु-परंतु इसे लेकर नहीं हुई।
हंसराज हंस, गायक

लोगों ने जब बहुत जिद की कि ‘दमादम मस्त कलंदर’ को सुनाइए, तो मैंने एक कार्यक्रम में रेखा भारद्वाज के साथ इसे मंच पर गाया था। फिर लोगों ने कहा कि इसे रिकॉर्ड भी करा लें, मगर मैंने कहा नहीं, जो सब करते हैं वह मैं नहीं कर सकता। जब कभी करूंगा भी तो इसे अपने अंदाज में। दरअसल, होता यह है कि जितने इस तरह के गाने होते हैं उनके कंपोजर का कोई नाम नहीं लेता है। जब लोग उसे गाते भी हैं तो उसे ट्रेडिशनल धुन कहकर गाते हैं, जबकि धुन कभी ट्रेडिशनल नहीं होती। शब्द ट्रेडिशनल होते हैं। धुन किसी न किसी ने रची होती है। सब लोग जब हमको सूफी गायक बोलते हैं तो मैं हंसता हूं। कोई सूफी गायक नहीं होता। कोई भी दुनिया में सूफी गायक पैदा नहीं हुआ। अमीर खुसरो भी सूफी संगीतज्ञ थे। उनके बाद कोई पैदा नहीं हुआ। जब भी आप किसी स्प्रीचुअल सोल के लिए गाते हो तो वह किसी इंसान के लिए नहीं होता। सूफियाना कलाम एक तरह से आपका रिश्ता आपके रब से जोड़ता है।
कैलाश खेर, गायक
अपने लगभग सभी कार्यक्रमों में पूरनचंद वडाली, प्यारे लाल वडाली बंधु दमादम मस्त कलंदर को जरूर पेश करते हैं और उनकी इस प्रस्तुति की खासियत यह होती है कि वह बीच-बीच में सूफी लाल शाहबाज कलंदर के जीवन के अहम वाकियों को भी सुनाते हैं और गाते जाते हैं। वह बताते हैं, ‘अक्सर लोगो को यह नहीं पता कि दमादम मस्त कलंदर कौन हुए हैं। वह सिंध के सेवहन के सखी शाहबाज कलंदर थे। सखी यानी देने वाले। जैसे बाबा जी, गुरुजी दे रहे हैं, इसलिए वह लोगो के लिए सखी शाहबाज कलंदर हो गए। 

50 साल पहले गिरा था झुमका


50 साल पहले गिरा था झुमका

झुमका बरेली में ही बार-बार क्यों गिरता है? इसी सवाल को जहन में रखकर दूर-दूर से सैलानी बरेली की सरजमीं पर कदम रखते ही पूछते हैं कि आखिर झुमका गिरा कहां था। पूछने की वजह यही है कि चाहें अपने समय की मशहूर अदाकारा साधना हों या माधुरी दीक्षित इनके झुमके बरेली में आकर ही गुम हुए। 1966 में फिल्म ‘मेरा साया’ में, ‘झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में’ गीत हो या कुछ वर्ष पहले माधुरी दीक्षित की कमबैक फिल्म ‘आजा नच ले’ का ‘मेरा झुमका उठा के लाया यार वे, जो गिरा था बरेली के बाजार में’, के अंतर्गत झुमका बरेली में ही गिरने की शिकायत नायिका ने की है। सवाल उठता है आखिर यह झुमका गिरा कब? क्योंकि इन नायिकाओं का न तो बरेली से कोई नाता है और न ही इनकी किसी फिल्म में ही बरेली का जिक्र। मगर इनका भी क्या कुसूर, गीत लिखने वालों ने झुमका गिराने की मुफीद जगह बरेली को ही पाया। मशहूर गीतकार राजा मेहदी अली खान जिन्होंने ‘मेरा साया’ के इस गीत को लिखकर रातों-रात बरेली को सुर्खियों में ला दिया था, उनका बरेली से कोई ताल्लुक नहीं था। इसके बावजूद उन्होंने अपने गीत में बरेली का जिक्र किया। दरअसल, झुमका इलाहाबाद के एक कवि की प्रेयसी का था जो बरेली के बाजार में गिरा था, क्योंकि बात कवियों की थी तो माहौल में फैल गयी और गीत की रचना का रूप ले लिया। फिलहाल, मामला अब झुमके को लेकर नहीं बल्कि इसके गिरने की जगह को लेकर सुर्खियों में है। बरेली विकास प्राधिकरण शहर के डेलापीर चौराहा पर झुमके की प्रतिकृति लगवाने की कवायद कर रहा है जिससे शहर और झुमके की पहचान को सिंबल के तौर पर खड़ा किया जाए और लोगों को जवाब मिल सके कि झुमका बरेली के इस बाजार में गिरा था। हालांकि कुछ लोगों का कहना है कि चूंकि झुमका कुतुबखाना बाजार में गिरा था और गीत भी इसी तंग बाजार को लेकर लिखा गया इसलिए यह पहचान इस बाजार से जुड़नी चाहिए।
बात कुछ पुरानी तो है मगर कई लोग इसकी तस्दीक करते हैं कि असल में यह झुमका तेजी बच्चन का था। तेजी बच्चन अभिनेता अमिताभ बच्चन की मां हैं। हरिवंश राय बच्चन से उनके विवाह से पहले दोनों का बरेली आना हुआ था। बरेली के प्रसिद्ध बाल साहित्यकार निरंकार सेवक से हरिवंश राय बच्चन की गहरी दोस्ती थी। उनसे मिलने के लिए अक्सर हरिवंश राय बरेली आया करते थे। दरअसल, तेजी बच्चन से उनके विवाह कराने में निरंकार सेवक का बड़ा हाथ था। निरंकार सेवक की पुत्रवधु पूनम सेवक कहती हैं, ‘यह विवाह हुआ ही निरंकार जी की कोशिशों से था।’ एक बार उनके कहने पर ही हरिवंश राय और तेजी बच्चन बरेली आये थे। इसी दौरान दोनों में नजदीकियां हुईं और बात विवाह तक पहुंच गयी। इस बीच प्रेम का जो अंकुर फूटा उसी से प्रेरित होकर एक दिन तेजी के मुंह से निकल गया कि, ‘मेरा झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में।’ उनके यह कहने का आशय शायद यह रहा हो कि वह प्रेम में अपनी सुध-बुध खो बैठी हैं और ऐसे में उनको अपने झुमका गिरने का भी पता नहीं चला। हालांकि यह भी हो सकता है कि बरेली के बाजार की तंग गलियों से होकर गुजरने की वजह से उनका झुमका गिरा हो, जैसा कि कुछ लोगों का कहना है। खैर, साहित्य के गलियारों से कोई बात निकलती है तो फसाना बनती ही है। झुमका गिरने की इस घटना का जिक्र गीतकार राजा मेहदी अली खान तक पहुंचा और ‘मेरा साया’ के गीत लिखने के वक्त उन्होंने इसी वाकिये को गीत की शक्ल दे दी। इत्तेफाक से यह गीत मशहूर भी बहुत हुआ। हालांकि झुमका किसका गिरा यह बात पर्दे में रही लेकिन इस गीत के बहाने बरेली का बाजार जरूर मशहूर हो गया।
फिलहाल, वह झुमका कब का गिर चुका, मिला या नहीं इसकी तस्दीक आज तक नहीं हो सकी। हालांकि बरेली विकास प्राधिकरण ने वह झुमका पाया डेलापीर चौराहे पर। शायद यही वजह है कि वह इस चौराहे पर झुमके की बड़ी-सी प्रतिकृति लगाएगा। विरोध इसी बात को लेकर है। दरअसल, डेलापीर पर आज भी आभूषणों से संबंधित कोई बाजार है ही नहीं। फल मंडी और हाईवे जरूर है और शायद यही वजह है कि बीडीए इसी जगह पर बरेली की पहचान के तौर पर झुमका और इस जैसी अन्य चीजों की प्रतिकृति लगाने की बात कर रहा है। बहरहाल, बीडीए की 14  मीटर की परिधि में झुमका की प्रतिकृति लगाने की योजना है। इस बाबत झुमके की डिजाइन मंगाई है और सर्राफा व्यावसायियों से झुमके की ऐसी प्रतिकृति बनाने को कहा गया है जिसमें सर्मा, मांझा, जरी-दरदोजी जैसी शहर की मशहूर चीजें भी शामिल हों। दरअसल, इसके जरिये बीडीए की योजना है कि वह डेलापीर को बाजार के तौर पर विकसित कर खरीदारों को आकर्षित कर सके। वहीं कुतुबखाना का तंग बाजार मुगलकाल से ही महिलाओं के बाजार के नाम से मशहूर रहा है। एक के बाद एक तंग गलियों में महिलाओं के बनाव-श्रंगार से लेकर सोने-चांदी के आभूषण तक इस बाजार में मिलते हैं। एक के बाद एक छोटी-छोटी दुकानें, बाहर तक फैले हुए बाजार आज भी वैसे ही हैं जैसे बरसों पहले थे।
निरंकार जी से मेरे संबंध उस समय और घनिष्ठि हो गये थे जब वह अमर उजाला में संपादकीय लिखा करते थे। वह बाल साहित्यकार थे और मैं अपनी कविताओं के सिलसिले में उनसे मिला करता था। तभी उन्होंने कई बार हरिवंश राय जी से अपनी दोस्ती का जिक्र किया था। ऐसे में तेजी जी के झुमके वाली बात भी उनके मुंह से सुनी थी। जहां तक झुमका प्रतिकृति की बात है तो कायदे से तो वह कुतुबखाना पर ही लगनी चाहिए लेकिन कुतुबखाना पहले ही इतना तंग बसा हुआ है कि यहां कोई प्रतिकृति लगायी ही नहीं जा सकती।
रमेश गौतम, नवगीतकार, बरेली
बाबू जी (निरंकार सेवक) और हरिवंश जी की दोस्ती किसी से छुपी नहीं है। अक्सर आते और घर पर ठहरते भी थे। ऐसे ही एक दिन योजना बनी कि हरिवंश जी का तेजी जी से विवाह करवा दिया जाए। इसी दौरान एक दिन झुमका की घटना भी हुई। रही झुमका की प्रतिकृति लगने की बात तो डेलापीर से इसका कोई मतलब ही नहीं है। यह कुतुबखाना पर ही लगनी चाहिए।
पूनम सेवक, पुत्रवधु निरंकार सेवक
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पहले भी गिर चुका है झुमका
1947 में फिल्म ‘देखो जी’ में सबसे पहले ऐसा ही एक गीत फिल्माया गया था। इस गीत को वली साहेब ने लिखा था इसके बोल थे, ‘झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में, होय झुमका गिरा रे, मोरा झुमका गिरा रे,’। इस गीत को शमशाद बेगम ने गाया था। हालांकि न तो वह फिल्म चली और गीत भी गुमनाम होकर रह गया। इसके अलावा पाकिस्तान में भी इसी तर्ज पर एक गीत बना था, ‘झुमका गिरा रे कराची के बाजार में’, 1963 में फिल्म ‘मां के आंसू’ में इस गीत को जगह मिली थी। मुशीर काजमी और शबाब केरानवी के लिखे इस गीत को लोगों ने काफी पसंद किया था लेकिन 1966 की ‘मेरा साया’ के आशा भोंसले के गाये गीत की मिठास को लोग आज तक नहीं भूले हैं।