Saturday 12 November 2011

हिन्दी देवी क्यों नहीं

दलित समाज की अंग्रेज़ी देवी की प्रतिमा अपने 800 वर्ग फुट के मन्दिर में विराजमान हो चुकी है। भाषा किसी धर्म, देश की सीमा में बँधी नहीं होती, लेकिन फिर भी मातृभाषा ठीक उसी तरह सबसे पहले आदर-सम्मान की हक़दार है जैसे मौसी से पहले माँ। मगर इस हिन्दी माँ को कमतर तो समझा ही जाता रहा, अब इसका हक़ भी अंग्रेज़ी मौसी को दे दिया गया। वह भी हिन्दी प्रदेश के हिन्दी ज़िले में। लखीमपुर खीरी के नालन्दा पब्लिक शिक्षा निकेतन में मन्दिर बनाकर अंग्रेज़ी देवी की मूर्ति स्थापित करायी गयी है।
अफ़सोस यह है कि जो हिन्दी हमारे पूर्वजों से लेकर हमारी मातृभाषा कहलाने की हक़दार है उस भाषा को इतना भी सम्मान नहीं दिया गया कि अंग्रेज़ी देवी के समकक्ष ही समझा जाता। पड़ोसी मुल्क़ चीन में लोग बेशक दीगर भाषाओं को सीखते हैं, लेकिन सरकारी कामकाज और यहाँ तक कि विदेश में जाकर भी चाइनीज़ ही बोलते हैं। चीन हमसे बड़ी और तेज़ी से उभरती अर्थव्यवस्था है, फिर भी वहाँ के लोग अपनी संस्कृति, भाषा और जड़ों से मज़बूती से जुड़े रहकर विकास की बात करते हैं।
कहीं यह क्रिया की प्रतिक्रिया तो नहीं! वेदों का आधार संस्कृत भाषा है। उस संस्कृत भाषा का दलित समाज घोर विरोधी है। इसी संस्कृत में वह मनुस्मृति भी है जिस पर डॉ. भीमराव अम्बा वाडेकर को घोर आपत्ति थी। इसी कारण सदियों से चले आ रहे उच्च वर्णों के शोषण, तिरस्कार से आजिज़ आकर उन्होंने ढाई लाख शूद्र हिन्दुओं के साथ सनातन धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। यह उनका विरोध ओर उच्च वर्णों की सदियों की निरंकुशता का परिणाम था। वही बात आज हिन्दी के तिरस्कार और अंग्रेज़ी को देवी के रूप में महिमामण्डित करने में भी दिखायी दे रही है, क्योंकि हिन्दी उसी संस्कृत के गर्भ से निकली है। मगर इस तरह का विरोध कहाँ तक सही है। हमारी जड़ें हिन्दू समाज में इस तरह मिली हैं कि हम अलग नहीं हो सकते। इस बात के लिए इतना कहना ही काफी है कि जिस मूर्ति पूजा को महात्मा बुद्ध ने वर्जित किया था वही मूर्ति पूजा, महात्मा बुद्ध की प्रतिमा बनाकर अञ्जाम दी जाती है। यह सनातन धर्म या भारतीय समाज, माहौल का असर नहीं तो और क्या है। ऐसे में कितना सही है बुनियाद जुदा कर अलग ईंट को चुनना। जहाँ तक भाषा की बात है तो भाषा किसी धर्म, देश की हद में बँधकर न तो रह पायी है और न ही किसी एक धर्म-पन्थ का ठप्पा लगाकर उसे देखना सही है। जो बदसलूकी, अनदेखी उर्दू के साथ उसे मुस्लिम समाज का हिस्सा मानकर की जाती है, क्या वही तिरस्कार संस्कृत-हिन्दी के साथ भी दलित समाज उसे हिन्दुओं की बपौती मानकर नहीं कर रहा। अगर अंग्रेज़ी को तरक्की की भाषा मानकर, देवी बनाकर पूजा जा सकता है तो हिन्दी को भी मातृभाषा होने के नाते अंग्रेज़ी से ज्य़ादा सम्मान देने की ज़रूरत है।

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